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________________ १८६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन उसे परम्परया मोक्ष का कारण कहा गया है।' अतः जहाँ सम्यग्दर्शन के अभाव में चतुर्थ गुणस्थान के पूर्व की शुभक्रिया मिथ्या होती है, वहीं निश्चयसापेक्ष होने से सम्यक् भी है। इस प्रकार सिद्ध है कि निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म होता है । चर्चित विद्वज्जन कहते हैं - " प्रथम गुणस्थान में इस जीव के परद्रव्यभावों से भिन्न आत्मस्वभाव के सम्मुख होने पर जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह विशुद्धि ही असंख्यातगुणी निर्जरा आदि का कारण है, परद्रव्यभावों में प्रवृत्त हुआ शुभोपयोगपरिणाम नहीं। यह जीव जब कि मिथ्यादृष्टि है ऐसी अवस्था में उसके शुद्धोपयोग के समान शुभोपयोग कहना भी उपयुक्त नहीं है, फिर भी वहाँ पर जो भी विशेषता देखी जाती है, वह आत्मस्वभाव - सन्मुख हुये परिणाम का फल है ।" " यह सत्य है, किन्तु प्रश्न है कि आत्मस्वभाव - सन्मुख होने में आत्मा की पहचान आवश्यक है या नहीं ? उसके लिए मोह की मन्दता अनिवार्य है या नहीं ? और इसमें तत्त्वचिन्तन, जिनबिम्बदर्शन तथा अहिंसादि शुभप्रवृत्तियों का योग रहता है या नहीं ? इसका निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट कहा है कि प्राथमिक जन भिन्न साधनों का अवलम्बन कर सुखपूर्वक धर्ममार्ग में अवतरित होते हैं और धीरे - धीरे मोह का उन्मूलन करते हैं। इसका निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। मोक्षमार्गप्रकाशककार का भी कथन है कि शुभोपयोग से कर्म के स्थिति- अनुभाग घटते हैं, मोह मन्द होता है और सम्यक्त्व प्राप्ति का पथ प्रशस्त होता है । * निष्कर्ष यह कि आत्माभिमुख - परिणाम होने में शुभप्रवृत्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: वह चतुर्गुणस्थान के लब्धिरूप निश्चयधर्म की परम्परया साधक है । इसी कारण वह व्यवहारधर्म कहलाती है, जिससे सिद्ध होता है कि निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म होता है । फलस्वरूप दोनों में साध्यसाधकभाव है और साध्य - साधकभाव होने से परस्पर सापेक्षता है। निमित्तनैमित्तिक का समकालयोग अनिवार्य नहीं उक्त विचारक निश्चयधर्म की पूर्ववर्ती साधना को निश्चयधर्म का निमित्त न मानने में एक तर्क यह देते हैं कि दोनों का योग एक काल में नहीं होता। वे कहते १. " यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यबन्धकारणमेवेति । " परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका २/१९१ २. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग १, पृ० १२२ ३. पञ्चास्तिकाय / तत्त्वदीपिका/गाथा १७२ ४. मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ७ / पृ० २०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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