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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १८७ हैं — “निमित्तनैमित्तिकयोग एक काल में होता है। पहले निमित्त था, बाद में नैमित्तिक हुआ, ऐसा कार्यकारणभाव नहीं है।' १ यह तर्क नितान्त एकान्तवादी है। व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का परम्परया निमित्त है, साक्षात् निमित्त नहीं । पारम्परिक निमित्त का नैमित्तिक के काल में रहना अनिवार्य नहीं है। किसी कार्य की उत्पत्ति में निमित्तों की एक लम्बी परम्परा होती है। ये सभी निमित्त उस कार्य की उत्पत्ति के काल में विद्यमान नहीं रहते, तथापि उसके निमित्त होते हैं। उच्चतम कक्षा उत्तीर्ण करने में प्राथमिक कक्षा का ज्ञान निमित्तभूत है, किन्तु क्या दोनों कक्षाओं के पाठ्यक्रम का अध्ययन एक ही काल में होता है ? २ परमात्मप्रकाश के टीकाकार श्रीब्रह्मदेव सूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का भूतनैगमनय से परम्परया साधक होता है। तात्पर्य यह कि पारम्परिक निमित्त का नैमित्तिक के काल में सद्भाव आवश्यक नहीं है । वह भूतनैगमनय की अपेक्षा परम्परा से नैमित्तिक के काल में उपस्थित माना जाता है। इस प्रकार उसे साधक कहना संगत होता है । पञ्चास्तिकाय, गाथा १७० की टीका में आचार्य जयसेन ने यह अच्छी तरह दर्शाया है कि पूर्वभव की शुभोपयोग-साधना भवान्तर में किस प्रकार परम्परया मोक्ष की साधक होती है । अतः उक्त विद्वज्जनों की यह धारणा समीचीन नहीं है कि निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म का समकालयोग न होने से उनमें साध्य - साधकभाव नहीं है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समकालयोग न होने पर भी उनमें साध्य - साधकभाव है। अतएव वे परस्पर सापेक्ष हैं। यहाँ तक पूर्वोक्त विद्वज्जनों के उन भ्रान्तिपूर्ण तर्कों का खण्डन किया गया है जो उन्होनें निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में निमित्तनैमित्तिकात्मक ( कार्यकारणरूप ) साध्य-साधकभाव को असिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये हैं । अब उक्त विद्वानों ने उपर्युक्त उद्देश्य से ही साध्यसाधकभाव की जो अन्यथा व्याख्याएँ की हैं उनका निराकरण किया जा रहा है। सहचर - व्यवहारधर्म शुद्धोपयोगसाधक निर्दिष्ट विद्वानों का कथन है कि आगम में व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा / भाग १ / पृ० १५७ २. " अत्राह शिष्यः - निश्चयमोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भवतीति ? अत्र परिहारमाह - भूतनैगमनयेन परम्परया भवति । " परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका २/१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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