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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १८५ जिनबिम्बदर्शन आदि ) जो उस गुणस्थान की प्राप्ति में सहायक होती है, निन्दनीय है या व्यवहारधर्म नहीं कहला सकती। पं० टोडरमलजी के पूर्वोद्धृत वचनों से स्पष्ट है कि यदि उस साधना को इस प्रकार साधा जाय कि वह चतुर्थ गुणस्थान या सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में हेतु बन सके, तो वह अवश्य ही व्यवहारधर्म संज्ञा की पात्र होगी। पूर्वनिर्दिष्ट विद्वज्जन यह तो मानते हैं कि चतुर्थगुणस्थान के लब्धिरूप निश्चयधर्म के पूर्व शुभक्रिया ( शुभोपयोग ) अनिवार्यतः होती है, क्योंकि उन्हें यह स्वीकार्य है कि निश्चयधर्म इसी क्रम से प्रकट होता है, किन्तु उनका कहना है कि उस समय निश्चयधर्म का अभाव होता है, अत: उसके अभाव में वह क्रिया सम्यक् नहीं होती, इसलिये व्यवहारधर्म संज्ञा की पात्रता नहीं रखती। फलस्वरूप निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म होता ही नहीं है।' हाँ निश्चयधर्म प्रकट हो जाने पर वही क्रिया सम्यक् हो जाती है और व्यवहारधर्म संज्ञा प्राप्त करती है। अतः निश्चयधर्म होने पर ही व्यवहारधर्म होता है। इससे उक्त विद्वान् यह फलित करना चाहते हैं कि जब निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म होता ही नहीं है तो वह निश्चयधर्म का साधक कैसे हो सकता है ? किन्तु यह मत सम्यक् नहीं है। यह सत्य है कि चतुर्थ गुणस्थान के पूर्व की शुभक्रिया सम्यग्दर्शन के अभाव में मिथ्या मानी जाती है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि वह उक्त गुणस्थान के लब्धिरूप निश्चयधर्म की साधक नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन के पूर्व का तत्त्वज्ञान मिथ्या कहलाता है और सम्यक्त्व प्रकट होने पर ही वह सम्यग्ज्ञान नाम पाता है, तथापि वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का हेतु है, यह आगम से प्रमाणित है। * इसी प्रकार चतुर्थ गुणस्थान के लब्धिरूप निश्चयधर्म के पूर्व की शुभप्रवृत्ति भले ही सम्यक् न कहलाये, किन्तु वह उसकी साधक होती है और साधक होना ही व्यवहारधर्म कहलाने का हेतु है यह पूर्व में निर्णीत हो चुका है। तथा वह कथचित् सम्यक् भी है, क्योंकि वह निश्चयसापेक्ष होती है अर्थात् आत्मप्राप्ति के लक्ष्य से की जाती है। इसीलिये तो वह उक्त धर्म की साधक बन पाती है । निश्चयनिरपेक्ष शुभक्रिया निश्चयधर्म की साधक नहीं होती । आगम में निश्चयसापेक्ष शुभप्रवृत्ति सम्यक् मानी गयी है, इसीलिये १. मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ७ / पृ० २५७ २. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग १ / पृ० १५७; १२२ / भाग २ / पृ० ५८९ ३. वही, २/५८९ ४. “स्वपरभेदविज्ञानमागमतः सिद्ध्यति । " प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति १/९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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