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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १७९ सम्यग्दर्शन इसका अविनाभावी है, अतः सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहने से वैराग्यभाव धर्म का मूल सिद्ध होता है। इसे उन्होंने सम्यक्त्वाचरणचारित्र की भी संज्ञा दी है और मोक्ष का हेतु बतलाया है। इसके होने पर जीव शुभोपयोगी भी हो सकता है, शुद्धोपयोगी भी । इसीलिये उन्होंने कहा है २ धर्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ।। धर्मपरिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोगयुक्त होता है, तो निर्वाणसुख प्राप्त करता है, यदि शुभोपयोगयुक्त होता है, तो स्वर्गसुख पाता है। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा शुभोपयोग की अवस्था में भी धर्मपरिणत होता है। आचार्य अमृतचन्द्र का भी कथन है कि शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थसमवाय है। वस्तुतः जब सम्यग्दृष्टि का विषयभोग भी वैराग्यभावयुक्त हो सकता है, तब शुभोपयाग कैसे नहीं हो सकता ? अतः यह निर्विवाद है कि सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग में अनन्तानुबन्धी कषायों के उपशमादि से उत्पन्न आंशिक शुद्धभाव एवं अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदय से उत्पन्न अशुद्धभाव का मिश्रण होता है। इसी कारण सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग की प्रकृति मिथ्यादृष्टि तथा सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि के शुभोपयोग से भिन्न होती है और इसी कारण वह अशुभोपयोग के निरोध द्वारा आंशिक शुद्धि उत्पन्न करते हुए शुद्धोपयोग की भूमिका का निर्माण करता है तथा संसारस्थिति का छेद करता है। इस प्रकार वह परम्परया मोक्ष का साधक बनता है । अतः निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में परस्पर सापेक्षता है। * मात्र पुण्यबन्ध नहीं, परम्परया मोक्ष भी ५ चर्चित विद्वानों का यह कथन भी नितान्त एकान्तवादी है कि शुभपरिणाम मात्र बन्ध का कारण होने से मोक्षमार्ग में हेय है । " भगवान् कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि शुभोपयोग पात्र के अनुसार फल देता है। इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य ६ १. "दंसणमूलो धम्मो ।” दंसणपाहुड/गाथा २ २. प्रवचनसार १/११ ३. " अस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवायः । प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, ३/४५ संसारस्थितिविच्छेदकारणं विषयकषायोत्पन्नदुर्ध्यानविनाशहेतुभूतं च परमेष्ठिसम्बन्धिगुणस्मरणदानपूजादिकं कुर्युरिति । " परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका, २/६१ ५. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ७८० ६. रागो पसत्थभूदो वत्थविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ।। प्रवचनसार ३ / ५५ ४. - (6.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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