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________________ १८० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन जयसेन कहते हैं - ___"जैसे जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भूमि के अनुसार एक ही प्रकार के बीज भिन्न-भिन्न फल देते हैं, वैसे एक ही शुभोपयोग साधक की भूमिका के अनुसार भिन्न-भिन्न फल देता है। अभिप्राय यह है कि जब सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होता है, तब मुख्यरूप से तो पुण्बन्ध होता है और परम्परया निर्वाण की प्राप्ति होती है। यदि शुभोपयोग सम्यक्त्वसहित नहीं होता, तो पुण्यबन्धमात्र होता है।' भगवान् कुन्दकुन्द ने शुभोपयोग को गृहस्थों के लिये उत्कृष्टचर्या तथा निर्वाणसुख का परम्परया हेतु बतलाया है। यह निर्वाणसुख का परम्परया हेतु किस प्रकार है इसका दृष्टान्त द्वारा निरूपण करते हुए अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं - “गृहस्थों में समस्त विरति का अभाव होने से शुद्धात्मा की अनुभूति नहीं होती, कषाय के सद्भाव से शुभोपयोग की प्रवृत्ति होती है। तथापि जैसे ईंधन स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज को ग्रहण कर लेता है, वैसे ही प्रशस्तराग के संयोग से साधक भी क्रमशः शुद्धात्मा की अनुभूति तक पहुँच जाता है और परम्परया निर्वाण सुख प्राप्त करता है। अत: गृहस्थों में शुभोपयोग की मुख्यता है।' प्रशस्तराग ( शुभोपयोग ) के द्वारा गृहस्थ शुद्धात्मा की अनुभूति तक कैसे पहुँच जाता है, इसका विवेचन पूर्व में “व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की सामर्थ्य का जनक' शीर्षक के अन्तर्गत किया जा चुका है। सम्यग्दृष्टि आत्मा शुभोपयोग का अवलम्बन सांसारिक सुखों की वांछा से नहीं करता, अपितु शुद्धात्मानुराग से करता है। इसीलिये उसके अनीहित पुण्यास्रव होता है, जो अल्पलेप ( अल्पकर्मबन्ध ) का हेतु है और इस कारण वह संसार१. “यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिवशेन तान्येव बीजानि भिन्नभिन्नफलं प्रयच्छन्ति तथा स एव बीजस्थानीयशुभोपयोगो भूमिस्थानीय-पात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्नभिन्नफलं ददाति। तेन किं सिद्धम् ? यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च, नोचेत्पुण्यबन्धमात्रमेव।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति ३/५५ २. एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो धरत्थाणं ।। चरिया परे त्ति भणिदा ता एव परं लहदि सोक्खं ।। वही, ३/५४ ३. “गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात् कषायसद्भावात् प्रवर्त मानोऽपि स्फटिकसम्पर्केणार्कतेजस इवैधसा रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात् क्रमत: परमनिर्वाण-सौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।" वही/तत्त्वप्रदीपिका ३/५४ ४. जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ।। वही, ३/५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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