________________
१७८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
अशुद्धभाव इन दोनों शुद्धाशुद्धभावों के मिश्रितरूप उपयोग को शुभोपयोग लिखा है, किन्तु उस पक्ष का यह लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन श्रद्धा की स्वभावपर्याय है और राग चारित्रगुण की विभावपर्याय। इन दोनों का मिश्रण बन ही नहीं सकता।'
किन्तु सम्यक्त्वसहित शुभोपयोग के उक्त लक्षण को भ्रान्त सिद्ध करनेवाले कथित विद्वानों ने सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव के तात्पर्य को हृदयंगम नहीं किया, अत: उनका उपर्युक्त मत समीचीन नहीं है। शुभोपयोग के सन्दर्भ में सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव से तात्पर्य उस आंशिक वीतरागत्व से है जो अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क के उपशमादि से प्रकट होता है और जिस पर सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति अवलम्बित होती है। उसके बिना सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है, अत: उसके साथ सम्यग्दर्शन का अविनाभावसम्बन्ध है।' फलस्वरूप सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव से वही आंशिक वीतरागभाव विवक्षित है। वह चारित्रगुण की पर्याय है। उसके साथ उस अशुद्ध भाव ( शुभराग ) के मिश्रण में कोई बाधा नहीं है जो अन्य अवशिष्ट कषायों के उदय से उत्पन्न होता है। इसी अपेक्षा से यह कथन संगत है कि सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव और कषायरूप अशुद्धभाव इन दोनों का मिश्रित उपयोग शुभोपयोग है। इसी को दृष्टि में रखकर आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है -
"साधक जितने अंश में सम्यग्दृष्टि है, उतने अंश में उसे कर्मबन्ध नहीं होता, जितने अंश में राग है, उतने अंश में कर्मबन्ध होता है।"३
सम्यग्दर्शन का अविनाभावी वीतरागभाव ही मोक्ष की दृष्टि से प्रधान है। इसका लक्षण है संसार, शरीर और भोगों के प्रति वैराग्यभाव। इसके होने पर सम्यग्दृष्टि को कर्मोदय के निमित्त से जो विषयभोग प्राप्त होता है तथा अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदय से वह जो शुभराग करता है, दोनों भोगाकांक्षा से रहित होते हैं, अत: सम्यग्दृष्टि को दीर्घ संसार का बन्ध नहीं होता।
इस वैराग्यभाव ( समभाव ) को ही आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म कहा है। १. (क) जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ७९७
(ख) वही, २/७४६ २. “अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिता रागद्वेषमोहाः सम्यग्दृष्टेर्न
सन्ति।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १७७ ३. येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। पुरुषार्थसिद्धयुपाय/कारिका २१२ ४. “विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा १९३ ५. “धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो।" प्रवचनसार १/७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org