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________________ १६२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन पूज्यपाद स्वामी कहते हैं - 'रसपरित्याग आदि तप के द्वारा इन्द्रियों के मद का निग्रह होता है । " आचार्य जयसेन का कथन है 'शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, ये इन्द्रियविषय रागादि भावों की उत्पत्ति के बहिरंग कारण हैं, अत: इनका त्याग करना चाहिए।" उन्होंने बतलाया है कि इन्द्रियविषयों के त्याग से चित्त क्षोभरहित ( संक्लेशरहित ) हो जाता है । कषायों के तीव्रोदय में ही चित्त क्षुब्ध होता है, अतः स्पष्ट है कि संयम तीव्रकषायोदय के निरोध का निमित्त है। ४ ― पंडित टोडरमल जी का कथन है " बाह्य पदार्थ का आश्रय लेकर रागादि परिणाम हो सकते हैं। इसलिए परिणाम मिटाने हेतु बाह्य वस्तु के निषेध का कथन समयसारादि में है। यह नियम है कि बाह्य संयम साधे बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते। अतः बाह्य साधन का विधान जानने के लिए चरणानुयोग का अभ्यास करना चाहिए। "" तप : अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, कायक्लेश आदि बाह्य तपों के द्वारा भी शरीर को परद्रव्य की अधीनता से अधिकाधिक मुक्त करने का अभ्यास किया जाता है, जिससे शरीर परद्रव्यजन्य सुख का अभ्यस्त नहीं होता । फलस्वरूप परद्रव्य के अभाव में असातावेदनीय का उदय नहीं होता तथा असातावेदनीयजन्य पीड़ा के अभाव में परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय का उदय नहीं होता । तप से शरीर स्वस्थ भी रहता है, प्रमादग्रस्त नहीं होता । अतः रोग, आलस्य आदि से मुक्त रहने के कारण भी संक्लेशोत्पादक असातावेदनीय के उदय का निरोध होता है। अपरिग्रह : बाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से उनके संरक्षण, संवर्धन, परिष्करण आदि की चिन्ता उत्पन्न होती है । उनकी रक्षा के प्रयत्न में दूसरों के साथ संघर्ष होता है। हिंसा के प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं। अतः परिग्रह असाता और क्रोधादि के उदय का निमित्त होता है। जितनी ज्यादा वस्तुओं से सम्पर्क छूटता है उनके १. सर्वार्थसिद्धि ९ / १९ २. “ शब्दादयो रागादीनां बहिरंगकारणास्त्याज्याः।” समयसार / तात्पर्यवृत्ति ३६६-३७१ ३. “बहिरङ्गपञ्चेन्द्रियविषयत्यागसहकारित्वेनाविक्षिप्तचित्तभावनोत्पन्ननिर्विकारसुखामृतरसबलेन... ....।" वही / उत्थानिका ४. “क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम् । " Jain Education International पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १३८ ५. मोक्षमार्गप्रकाशक / पृ० २९२ ६. “संयमे सावधानार्थं वातपित्तश्लेष्मादिदोषोपशमनार्थं ज्ञानध्यानादिसुखसिद्ध्यर्थं यत्स्तोकं भुज्यते तदवमौदर्यम् । हृषीकमदनिग्रहार्थं निद्राविजयार्थं स्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थं रसस्य घृतादेः परित्यागः रसपरित्यागः । " तत्त्वार्थवृत्ति ९ / १९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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