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________________ निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १६१ - इन्द्रियों का समूह जैसे-जैसे मद की उत्कटता धारण करता है, वैसेवैसे मनुष्य में कषायरूप अग्नि भड़कती है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है - यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। -हे कुन्तिपुत्र ! मनुष्य कितना ही ज्ञानी हो, यदि उसकी इन्द्रियाँ असंयत हैं तो वे मन को बलात् विषयों की ओर खींच ले जाती हैं। उद्दीप्त इन्द्रियों के निमित्त से असातावेदनीयजनित संक्लेश-परिणाम द्वारा विषयेच्छा उत्पन्न होने पर जीव विषय-प्राप्ति का प्रयत्न करता है। उसमें कोई बाधक बनता है, तो उसके निमित्त से क्रोध और मान उदित हो जाते हैं, जिनके कारण जीव हिंसादि पाप भी कर डालता है। इच्छित वस्तु की उपलब्धि यदि ऋजमार्ग से सम्भव नहीं होती, तो अनेक जीवों में माया कषाय का प्रादुर्भाव हो जाता है। इस प्रकार इन्द्रियों की भोगप्रवृत्ति तीव्रकषाय का निमित्त है। विषयों में इष्टानिष्टबुद्धि के निमित्त से तो तीव्रकषाय का उदय केवल मिथ्यादृष्टियों में ही होता है, किन्तु इन्द्रियों के भोगव्यसन के निमित्त से असंयत तथा संयतासंयत सम्यग्दृष्टियों में भी होता है। आचार्य जयसेन का कथन है - "जैसे कोई चोर मरना नहीं चाहता, तो भी कोतवाल के द्वारा पकड़े जाने पर उसे विवश होकर मरना पड़ता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीव, यद्यपि आत्मोत्पन्न सुख को उपादेय तथा विषयसुख को हेय समझता है, तो भी चारित्रमोहोदयरूप कोतवाल के वश में होकर विषयसुख का भोग करता है।" विषयसुख को हेय समझने पर भी उसे भोगने के लिए विवश करने वाला यह चारित्रमोह का उदय इन्द्रियों की भोगवासना के निमित्त से ही होता है, जैसे आहार को हेय समझने पर भी मुनि में आहार की इच्छा पैदा करनेवाला चारित्रमोहोदय शरीर की आहारवृत्ति के निमित्त से होता है। इस प्रकार इन्द्रियों की भोगवासना संक्लेश का प्रबलतम कारण है। इन्द्रियसंयम से संक्लेशपरिणाम का यह महान् स्रोत अवरुद्ध हो जाता है। इन्द्रियों को अनावश्यक विषयसेवन से क्रमश: निवृत्त करने पर उनका भोगाभ्यास छूट जाता है और उनमें विषयभोग के लिए पीड़ाकारक उद्दीपन नहीं होता। फलस्वरूप वे असातावेदनीय एवं तीव्रकषाय ( विषयाकांक्षा ) के उदय का निमित्त नहीं बन पातीं। १. श्रीमद्भगवद्गीता/द्वितीय अध्याय/श्लोक ६० २. समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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