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________________ १६० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन निमित्त-परिर्वतन से कर्मोदय में परिवर्तन ___ चूंकि कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से होता है, अत: निमित्तों में परिवर्तन कर कर्मोदय में परिवर्तन किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, लोभ उत्पन्न करनेवाली सामग्री का सान्निध्य टालकर और निर्लोभ की प्रेरणा देनेवाले निमित्तों का आश्रय लेकर लोभ के उदय को रोका जा सकता है। कोई हमारा अपमान करता है और उसके निमित्त से क्रोध उत्पन्न हो सकता है तो हम क्षमाभाव द्वारा अपमानबोध को निष्प्रभावी कर क्रोध के उदय को रोक सकते हैं। इस प्रकार क्षमादिभाव, संयम-तप-अपरिग्रह, भक्ति, स्वाध्याय आदि वे निमित्त हैं जो क्रोधादि के उदय के निमित्तों को अशक्त कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप क्रोधादि का उदय नहीं हो पाता, अर्थात् उनका तीव्रोदय असम्भव हो जाता है। इससे संक्लेश या कालुष्य की उत्पत्ति नहीं होती और विशुद्धता का विकास होता है। उस विशुद्धता से कोई-कोई अशुभ कर्म शुभ में बदल जाते हैं, किन्हीं अशुभ कर्मों की स्थिति और अनुभाग का ह्रास हो जाता है तथा शुभकर्मों की स्थिति घट जाती है और अनुभाग बढ़ जाता है। इस रीति से विशुद्धता का निरन्तर विकास होता रहता है। इसका विस्तृत विवेचन आगे किया जा रहा है। संयम, तप, अपरिग्रह की मनोवैज्ञानिकता संयम, तप और अपरिग्रह के द्वारा शरीर को परद्रव्यों की अधीनता से यथासम्भव मुक्त कर ऐसा स्वस्थ और संयत बनाया जाता है कि वह परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय के उदय का निमित्त नहीं बन पाता, न ही परद्रव्य के अभाव में असातावेदनीय के उदय का हेतु बनने में समर्थ होता है। संयम : इन्द्रियों में स्वभावतः विषयसेवन की रुचि होती है और अनियन्त्रित विषयभोग द्वारा उनमें विषयसेवन का व्यसन भी उत्पन्न हो जाता है। इससे उन्हें जिस समय, जिस वस्तु के भोग की आदत पड़ जाती है, उस समय उस वस्तु के भोग के लिए उनमें अत्यन्त पीड़ाकारक उद्दीपन होता है, अर्थात् असातावेदनीय का उदय होता है। उससे संक्लेशपरिणाम की उत्पत्ति होती है। उसके निमित्त से विषयों को भोगने की आकांक्षा के रूप में तीव्र राग का उदय होता है। इस तथ्य पर आचार्य शुभचन्द्र ने निम्नलिखित शब्दों में प्रकाश डाला है - इदमक्षकुलं धत्ते मदोद्रेकं यथा यथा । कषायदहनः पुंसां विसर्पति तथा तथा ।।' १. “दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेन रुचितारुचितेषु रागद्वेषावुपश्लिष्य नितरां क्षोभमुपैति।" प्रवचनसार, तत्त्वदीपिकावृत्ति १/८३ २. ज्ञानार्णव २०/३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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