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________________ निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १५९ नहीं। किन्तु काल की अपेक्षा अन्य निमित्त प्राय: बलवान होते हैं, क्योंकि भले ही किसी कर्म का उदयकाल हो, यदि किसी अन्य कर्म के उदययोग्य अन्य निमित्त उपस्थित हो गया है, तो उसका उदय हो जायेगा और जिसका उदयकाल है वह स्वमुख से उदित न होकर उसी अन्य कर्म के मुख से ( उसी के रूप में परिणत होकर ) उदित होगा।' जैसे साता और असाता दोनों का अबाधाकाल समाप्त हो जाने पर एक साथ दोनों ही प्रकृतियों के निषेक उदययोग्य होते हैं। किन्तु इनमें से जिसके उदय के अनुकूल अन्य निमित्त होंगे उसी का स्वमुख से उदय होगा, दूसरी का स्तिबुक-संक्रमण के द्वारा परमुख से उदय होगा।' जिस समय क्रोध का उदय है उस समय उदय में आनेवाले मान, माया, लोभ ( उस समय से ) एक समय पूर्व ही स्तिबुकसंक्रमण द्वारा क्रोधरूप परिणत हो जाते हैं। अतः क्रोधोदय के समय उदय को प्राप्त मान, माया, लोभरूप कर्म . स्वमुख से उदित न होकर क्रोधरूप में परमुख से उदित होते हैं।' पंडित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री लिखते हैं – “अध्रुवोदयरूप कर्मप्रकृतियों में हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय-उदीरणा काल सामान्यत: छः माह है। इसके बाद इनकी उदय-उदीरणा न होकर अरति और शोक की उदय-उदीरणा होने लगती है। किन्तु छह माह के भीतर यदि हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही इनकी उदय-उदीरणा बदल जाती है।" स्वर्ग में प्राय: साता की ही सामग्री उपस्थित रहती है और नरक में असाता की ही। अत: स्वर्ग में सातावेदनीय का ही उदय बना रहता है, असाता का उदयकाल आने पर साता के रूप में परिणमित होकर उदित होता है। इसी प्रकार नरक में असाता का ही उदय रहता है और सातावेदनीय असाता के रूप में परिवर्तित होकर फल देता है।" इससे स्पष्ट होता है कि उदयकालरूप निमित्त की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, भव, भाव तथा शिशिर-वसन्त, रात्रि, वार्धक्य आदि काल-रूप निमित्त अधिक बलवान् होते हैं। १. “स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च। सर्वासां मूल प्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः। उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीनां परमुखेनापि भवति आयुर्दर्शन चारित्रमोहवर्जानाम्।” सर्वार्थसिद्धि ८/२१ ।। २. “पं० रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व", भाग १, पृ० ४४६ ३. वही, भाग १, पृ० ४५५ ४. सर्वार्थसिद्धि ९/३६/विशेषार्थ ५. जैनदर्शन/महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य/पृ० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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