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________________ १५८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन जीव के लोभ का उदय हो जाता है। स्त्री के सान्निध्य से पुरुष के मन में, पुरुष के सम्पर्क से स्त्री के मन में कामवासना ( वेदकषाय ) की उत्पत्ति होती है । शत्रु का सामना होने पर क्रोध उदित हो जाता है । सुन्दर दृश्य, मधुर संगीत या मादक सुगन्ध की अनुभूति सातावेदनीय के उदय का कारण बन जाती है। ये द्रव्य के निमित्त से क्रोधादि कर्मों के उदय के उदाहरण हैं । कुछ कर्मप्रकृतियों का उदय नरक-स्वर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्रों में ही होता है । हिमालय आदि अत्यन्त शीतल क्षेत्र में या किसी अत्यन्त उष्ण प्रदेश में जाने से शीत और उष्णता की पीड़ा अनुभव करानेवाले असातावेदनीय का उदय होता है । कभी-कभी निर्जन वन में भय की उत्पत्ति होती है। यह क्षेत्र निमित्तक कर्मोदय है। उदयकाल आने पर जो कर्मोदय होता है वह कालनिमित्तक है । शीत, ग्रीष्म आदि देहप्रतिकूल ऋतुओं ( काल ) के निमित्त से भी असातावेदनीय का उदय होता है। वृद्धावस्था भी असातावेदनीय के उदय का निमित्त बन जाती है। यह कालनिमित्तक कर्मोदय है। मनुष्यादि भवों ( पर्यायों ) के निमित्त से मनुष्यगति, मनुष्यायु आदि का उदय होता है। देव और नारक भव के निमित्त से वैक्रियिक शरीर का उदय होता है। जीव के अपने भावों के निमित्त से भी कर्मों का उदय होता है। जैसे किसी वस्तु के प्रति लोभ का उदय हो और उसकी प्राप्ति सरल मार्ग से होती हुई दिखाई न दे, तो माया ( छलकपट भाव ) का उदय हो जाता है । माया सफल न होने पर हिंसाभाव ( क्रोध ) जन्म लेता है। मिथ्यात्व के निमित्त से संसार के पदार्थों में रागद्वेष की उत्पत्ति होती है। मानकषाय के निमित्त से अपना सम्मान करनेवालों के प्रति प्रीति ( रति ) एवं उपेक्षा करनेवालों के प्रति द्वेष ( अरति ) का उदय होता है। इस प्रकार कर्मों का विपाक ( फल देने की अवस्था को प्राप्त होना ), द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव का निमित्त होने पर ही होता है, उसके बिना भवों का, ‘काल' पद से शिशिर वसन्त आदि काल का अथवा बाल, यौवन, वार्धक्य आदि कालजनित पर्यायों का और 'पुद्गलद्रव्य' पद से गन्ध, ताम्बूल, वस्त्राभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए ।" कसायपाहुडसुत्त/गाथा ५९ / विशेषार्थ / पृ० ४६५ १. “ मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रतिः । " नियमसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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