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________________ निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १५५ आचार्य पूज्यपादस्वामी ने कहा है कि दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व इन तीन प्रकृतियों में से मिथ्यात्व प्रकृति की फलदानशक्ति को जब शुभपरिणामों के द्वारा रोक दिया जाता है तब वही सम्यक्त्व प्रकृति कहलाने लगती है। इन आचार्यवचनों से सिद्ध है कि मोक्षोन्मुख शुभोपयोग में मिथ्यात्व का उपशम आदि करने की शक्ति है। सम्यक्त्व की प्राप्ति उसी के प्रताप से होती है। मिथ्यात्व की अवस्था में शुद्धपरिणाम ( शुद्धोपयोग ) तो सम्भव ही नहीं है। सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग से अप्रत्याख्यानावरणादि का क्षयोपशम मोक्षोन्मुख शुभोपयोग से मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी का उपशम होता है और जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है। सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग में और अधिक विशुद्धता होती है। उससे अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होता है और जीव अणुव्रतादि श्रावकधर्म धारण करने योग्य अवस्था में पहुँच जाता है, जिसे पंचम गुणस्थान कहते हैं। सम्यक्त्वमय अणुव्रतादिरूप चारित्र तथा देवपूजादिरूप शुभोपयोग में विशुद्धता की मात्रा और अधिक हो जाती है जिसके बल पर जीव प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम कर महाव्रतादिरूप मुनिधर्म ग्रहण करने योग्य भूमिका प्राप्त कर लेता है, जो षष्ठ गुणस्थान कहलाती है। इस भूमिका में आने के बाद जब संज्वलन कषाय का उदय मन्द होता है तब जघन्य ( न्यूनतम ) शुद्धोपयोग सम्भव होता है, जो निश्चयतः मोक्षमार्ग है। इस तथ्य की पुष्टि आचार्य जयसेन के निम्न वचनों से होती है - ___ "भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग को प्राप्त साधक जब गुणस्थानों के सोपानक्रम से ( क्रमश: उच्चतर गुणस्थान में पहुँचता हुआ ) आत्माश्रित निश्चयदर्शनज्ञानचारित्र में परिणत होता है तब भिन्न साध्यसाधन का अभाव होने से निश्चयनय से स्वयं ही मोक्षमार्ग होता है। __इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग से अप्रत्यावर्धमानविशुद्धिः, चतुर्षु मनोयोगेषु अन्यतमेन मनोयोगेन, चतुर्पु वाग्योगेषु अन्यतमेन वाग्योगेन औदारिकवैक्रियिककाययोगयोरन्यतरेण काययोगेन वा समाविष्टः हीयमानान्यतमकषाय: सकारोपयोगः, त्रिषु वेदेष्वन्यतमेन वेदेन संक्लेशविरहित: वर्धमानशुभपरिणामप्रतापेन सर्वकर्मप्रकृतीनां स्थिति ह्रासयन् अशुभप्रकृतीनामनुभागबन्धमपसारयन् शुभप्रकृतीनां रसमुद्वर्तयन् त्रीणि करणानि कर्तुमुपक्रमते।" तत्त्वार्थवार्तिक ९/१ १. “तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि तद्वद्यमान: पुरुष: सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते।" सर्वार्थसिद्धि ८/९ २. “भेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो गुणस्थानसोपानक्रमेण . . स्वशुद्धात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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