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________________ १५४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन शुभोपयोग होता है तब प्रत्यक्षरूप से तो पुण्यबन्ध होता है और परम्परया मोक्ष की प्राप्ति होती है। यदि शुभोपयोग सम्यक्त्वपूर्वक नहीं होता तो मात्र पुण्यबन्ध ही होता है।' इससे यह तथ्य सामने आता है कि यदि कोई मिथ्यादृष्टि जीव सांसारिक सुखों की लालसा से शुभोपयोग में प्रवृत्त होता है, तो उसे केवल पुण्यबन्ध होता है, सम्यग्दर्शन तथा मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु यदि कोई मोक्ष के लक्ष्य से शुभोपयोग का आश्रय लेता है तो उसे सम्यग्दर्शन और परम्परया मोक्ष दोनों की उपलब्धि होती है। मोक्षोन्मुख शुभोपयोग से मिथ्यात्व का उपशम शुभोपयोग विशुद्धपरिणाममय ( मन्दकषायात्मक ) होता है और जब वह सांसारिक सुखों की लालसा से प्रेरित न होकर मोक्ष की आकांक्षा से सम्पृक्त होता है, तब वैराग्यभाव के कारण उसकी विशुद्धता बढ़ जाती है, जिससे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होता है तथा सम्यक्त्व की अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार की विशुद्धता को करणपरिणाम कहते हैं और इसकी प्राप्ति को 'लब्धि'।' करणलब्धि मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी के उपशमादि का प्रमुख एवं अव्यभिचारी कारण है। उसकी प्राप्ति शुभ परिणामों के प्रताप से होती है। इसमें भट्ट अकलंकदेव के निम्न वचन प्रमाण हैं - . “जो प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने की साधना आरम्भ करता है वह शुभ परिणामों के अभिमुख होता है, जिनसे उसकी विशुद्धि अन्तर्मुहूर्त में अनन्तगुनी बढ़ती जाती है। वह चार मनोयोगों में से किसी एक मनोयोग से, चार वचनयोगों में से किसी एक वचनयोग से तथा औदारिक और वैक्रियिक इन दो काययोगों में से किसी एक काययोग से युक्त होता है। उसके जिस कषाय का उदय होता है वह निरन्तर हीन होती जाती है। वह साकारोपयोग-वाला होता है तथा तीन वेदों में से किसी एक वेद से युक्त होने पर भी संक्लेशरहित होता है और बढ़ते हुए शुभ परिणामों के प्रताप से सभी ( आयु को छोड़कर ) कर्मप्रकृतियों की स्थिति का ह्रास करते हुए, अशुभकर्म-प्रकृतियों के अनुभागबन्ध को घटाते हुए तथा शुभकर्म-प्रकृतियों के अनुभाग को बढ़ाते हुए तीन करण करना प्रारम्भ करता है।" १. “यदा सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च। नोचेत् पुण्यबन्धमात्रमेव।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ३/५५ २. “दर्शनमोहोपशनादिकरणविशुद्धपरिणामः करण इत्युच्यते। तल्लाभ: करणलब्धिः।" कर्मप्रकृति/अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती/सूत्र २०४ ३. "प्रथमसम्यक्त्वं गृहीतुमारभमाणः शुभपरिणामाभिमुखः अन्तर्मुहूर्तमनन्तगुणवृद्ध्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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