SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन ख्यानावरण एवं देशचारित्रसहित शुभोपयोग से प्रत्याख्यानावरण कषायों का क्षयोपशम होता है जिससे जीव षष्ठ गुणस्थान नामक उस स्तर पर पहुँचता है जहाँ शुद्धोपयोगरूप निश्चयमोक्षमार्ग ग्रहण करना सम्भव होता है।' उपादान नहीं, निमित्तमात्र ___ इस प्रकार यद्यपि शुभोपयोग-परिणत आत्मा शुद्धोपयोग का उपादान नहीं है, क्योंकि शुभोपयोग परिणत आत्मा से शुद्धोपयोग की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जब आत्मा शुभोपयोग को छोड़कर शुद्धोपयोग का प्रयत्न करता है तब शुद्धोपयोग का उपादान होता है, तथापि शुभोपयोग शुद्धोपयोग की क्षमता का जनक है। क्योंकि सम्यक्त्वसाधक तथा सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग में जो आंशिक शुद्धता है उसके ही निमित्त से अनन्तानुबन्धी आदि कषायों का उपशम-क्षयोपशम होने पर जीव शुद्धोपयोग के योग्य गुणस्थान में पहुँचता है तथा वही शुद्धता क्रमशः विकसित होती हुई यथाख्यातचारित्ररूप पूर्ण शुद्धता में परिणत होती है, जैसा कि पंडित बनारसीदास जी ने कहा है - “विशुद्धता में शुद्धता है, वही यथाख्यातरूप होती है।" तथा पंडित टोडरमल जी का कथन है - "अरहन्तादि के प्रति जो स्तवनादिरूप भाव होते हैं, वे कषायों की मन्दतासहित ही होते हैं, इसलिए वे विशद्ध परिणाम हैं। पुनश्च समस्त कषाय मिटाने के साधन हैं, इसलिए शुद्धपरिणाम के कारण हैं। सो ऐसे परिणामों से अपने घातक घातिकर्म की हीनता होने से सहज ही वीतरागविशेष ज्ञान प्रकट होता है। प्राप्तभूमिका को निर्दोष रखने में सहायक ___ सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग जीव को षष्ठ गुणस्थान तक पहुँचा देता है। वह अशुभोपयोग का निरोधकर प्राप्त भूमिका को दूषित होने से भी बचाता है। शुद्धोपयोग में समर्थ हो जाने पर भी साधक विशिष्ट संहनन आदि शक्ति के अभाव में शुद्धोपयोग में निरन्तर स्थित नहीं रह सकता। कुछ समय बाद उससे च्युत हो जाता है। इस दशा में उसका राग विषयकषायरूप अशुभ विषयों में जा सकता है। अत: अप्रशस्त विषयों में जाने से रोकने के लिए उसे पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति तथा श्रितनिश्चयदर्शनज्ञानचारित्रैरभेदेन परिणतो यदा भवति तदा निश्चयनयेन भिन्नसाध्य साधनस्याभावादयमात्मैव मोक्षमार्ग इति।।' पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १६१ १. “ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टि-श्रावक-प्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते।" बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा ३४ २. उपादान-निमित्त की चिट्ठी/मोक्षमार्गप्रकाशक/परिशिष्ट, पृ० १९ ३. मोक्षमार्गप्रकाशक/पहला अधिकार/पृ० ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy