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निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १५१
में पहँच जाता है, जहाँ संज्वलन का मन्दोदय होने पर मनवचनकाय की पुण्यप्रवृत्ति का भी निरोध सम्भव होता है। एकदेशनिवृत्ति विशुद्धपरिणामपूर्वक
आत्मा के तीन परिणाम होते हैं – संक्लेश, विशुद्ध और शुद्ध। तीव्रकषायपरिणाम संक्लेश, मन्दकषायपरिणाम विशुद्ध तथा कषायरहित परिणाम शुद्ध कहलाते हैं। इन परिणामों में पुद्गल कर्मों के आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, संक्रमण आदि की शक्ति होती है।
संक्लेश परिणामों से अनेक अनर्थ होते हैं। नवीन अशुभ कर्मों में उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध होता है, पूर्वबद्ध शुभाशुभ ( देव-मनुष्यतिर्यञ्चायु को छोड़कर ) कर्मों की स्थिति बढ़ जाती है, अशुभ कर्मों के अनुभाग में वृद्धि हो जाती है और शुभकर्मों का अनुभाग घट जाता है। पूर्वबद्ध शुभकर्म अशुभकर्म में बदल जाते हैं।
विशुद्ध परिणामों से अनेक हितकर घटनाएँ घटती हैं। अघाती ( आत्मस्वभाव को तिरोहित एवं विकृत न करने वाले ) अशुभ कर्मों का संवर होता है तथा घाती ( आत्मस्वभाव को तिरोहित एवं विकृत करने वाले ) एवं अघाती अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है। पूर्वबद्ध घाती और अघाती अशुभ कर्मों की स्थिति और अनुभाग हीन हो जाते हैं, पूर्वबद्ध शुभ कर्म के अनुभाग में वृद्धि हो जाती है तथा अशुभ कर्म शुभ कर्म में संक्रमित हो जाते हैं। नये शुभ कर्मों का अल्पस्थिति और तीव्र अनुभागसहित बन्ध होता है। घाती कर्मों का बन्ध अल्पस्थिति और अल्प अनुभागसहित होता है। इस प्रकार विशुद्ध परिणामों से संसारस्थिति क्षीण होती है तथा आगे के लिए विशुद्ध परिणामों की स्थिति निर्मित होती है।
शुद्ध परिणामों से शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का संवर और निर्जरा होती है, किन्तु जब तक समस्त कषायों का उपशम या क्षय नहीं हो जाता, तब तक शुद्धोपयोग की अवस्था में भी अबुद्धिपूर्वक रागादिभावों का उदय रहने १. (क) 'अइतिव्वकसायाभावो मंदकसाओ विसुद्धदा त्ति घेतव्वा।' धवला, ११/४,२,६ (ख) 'असादाबंधजोग्गपरिणामो संकिलेसो णाम।'
का विसोही ? सादाबंधजोग्गपरिणामो।' धवला ६/१,९-७,२ (ग) को संकिलसो णाम ? कोहमाणमायालोहपरिणामविसेसो।' ।
कसायपाहुड/जयधवला/पुस्तक ४/भाग ३-२२/प्रकरण ३०/पृ० १५ (घ) क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम्।
तेषामेव मन्दोदये तस्य प्रसादोऽकालुष्यम्। पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १३८ २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६/३ तथा गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, गाथा १३४, १६३-१६४
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