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________________ १५० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन इस प्रकार निश्चयमोक्षमार्ग के अवलम्बन - योग्य अवस्था एक कठिन साधना से प्राप्त होती है, इसलिये निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और सम्यक्त्वपूर्वक अथवा सम्यक्त्वसाधक शुभोपयोगरूप व्यवहारमोक्षमार्ग उसका साधक । व्यवहारमोक्षमार्ग की वैज्ञानिक भूमि निश्चयमोक्षमार्ग की सिद्धि में व्यवहारमोक्षमार्ग का प्रबल वैज्ञानिक आधार है, जिस पर यहाँ प्रकाश डाला जा रहा है। प्राथमिक भूमिका में केवल पाप से निवृत्ति सम्भव पाप और पुण्य दोनों से निवृत्ति का नाम मोक्षमार्ग है। ' आरम्भ में पाप और पुण्य दोनों से निवृत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि इसके लिये मनवचनकाय की प्रवृत्ति का सर्वथा निरोध आवश्यक है और जब तक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय तथा संज्वलन कषाय का तीव्रोदय रहता है तब तक चित्त में इतनी चंचलता रहती है कि मनवचनकाय की प्रवृत्ति का सर्वथा निरोध नहीं हो सकता। केवल अनन्तानुबन्धी आदि का मन्दोदय होने पर चित्तवृत्ति को पुण्यप्रवृत्ति में लगाकर पापप्रवृत्ति का किसी सीमा तक निरोध हो सकता है। इसीलिए असंयतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से पूर्व अशुभोपयोग ज्यादा और शुभोपयोग कम होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत (षष्ठ) गुणस्थान तक अशुभोपयोग क्रमशः अल्प तथा शुभोपयोग अधिक होता है। उससे ऊपर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान तक केवल शुद्धोपयोग उत्तरोत्तर अधिक मात्रा में होता है।' इस प्रकार छठवें गुणस्थान तक केवल पाप क्रिया की ही निवृत्ति सम्भव है, पुण्य क्रिया की नहीं। इसके बाद जब संज्वलन का मन्दोदय होता है तब पाप और पुण्य दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का निरोध सम्भव होता है। पुण्यनिवृत्तियोग्य अवस्था की प्राप्ति इस प्रकार आरम्भ में केवल पाप से ही निवृत्ति सम्भव है, किन्तु इस एकदेशनिवृत्ति ( मन्दकषायरूप विशुद्धपरिणाम ) में इतनी शक्ति होती है कि उससे मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषायों का उपशम या क्षयोपशम हो जाता है जिससे आत्मा षष्ठ गुणस्थान नामक उस अवस्था १. “ तच्चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।” मोक्खपाहुड / गाथा ३७ २. “मिथ्यात्वसासादानमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि- देशविरत - प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति । ” प्रवचनसार/ तात्पर्यवृत्ति १ / ९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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