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१५२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
से कुछ कर्मों का अल्पस्थिति एवं अल्पानुभागसहित बन्ध होता है ।
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पापक्रिया से विरत होना एकदेशनिवृत्ति है, वह मन्द कषाय की अवस्था में ही होती है, अतः उसमें विशुद्धपरिणाम अन्तर्निहित होता है । व्रत, पूजा, भक्ति, बाह्यतप, स्वाध्याय आदि व्यवहारचारित्र पुण्यक्रिया है। यह ( व्यवहारचारित्र ) शुभो - पयोग कहलाता है। यह भी मन्दकषाय की अवस्था में ही होता है । अत: यह भी विशुद्ध परिणामरूप है, जैसा कि पंडित टोडरमल जी ने कहा है। "अरहन्तादि के प्रति जो स्तवनादिरूप भाव होते हैं, वे कषायों की मन्दतासहित ही होते हैं, इसलिए वे विशुद्ध परिणाम हैं।"" शुभोपयोग के समय अशुभोपयोग ( पापप्रवृत्ति ) का अभाव होता है, अत: उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के अंश रहते हैं । ब्रह्मदेव रिने प्रवृत्त्यंश की अपेक्षा महाव्रतों को एकदेशव्रत कहा है, क्योंकि उनमें कर्मबन्ध की हेतुभूत मनवचनकाय की क्रिया पूर्णरूप से निवृत्त नहीं होती। वे कहते हैं
" जीवघातनिवृत्तौ सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति । तथैवासत्यवचनपरिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृत्तिरस्ति । तथैव चादत्तादान परिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरस्ती - त्याद्येकदेशप्रवृत्त्यपेक्षया देशव्रतानि । २
व्रतादि शुभोपयोगरूप व्यवहारचारित्र में जो पापक्रियानिवृत्तिरूप निवृत्त्यंश है वह एकदेशकषायाभावरूप होने से एकदेशशुद्धभाव है। विशुद्धपरिणाम भी मन्दकषायात्मक होने से एकदेशकषायाभाव की अपेक्षा एकदेशशुद्धभाव है । अतः शुभोपयोग के अन्तर्गत जो एकदेशनिवृत्ति के रूप में अथवा विशुद्धपरिणाम के रूप में एकदेशशुद्धभाव है उससे पापकर्मों का संवर और निर्जरा होती है तथा जो एकदेश प्रवृत्ति के रूप में शुभराग है उससे पुण्यकर्मों का आस्रव और बन्ध होता है। इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने अहिंसादि व्रतों को एकदेशप्रवृत्ति की अपेक्षा आस्रव के कारणों में तथा एकदेशनिवृत्ति की दृष्टि से दशधर्मों के अन्तर्गत संयम और ब्रह्मचर्य के नाम से संवर के कारणों में वर्णित किया है।' उन्होंने अनशनादि बाह्यतपों को भी, जो शुभप्रवृत्तिरूप हैं, संवर और निर्जरा का हेतु बतलाया है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने भी व्रतादि को संवर के हेतुओं में परिगणित किया है और श्री ब्रह्मदेवसूरि ने व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभोपयोग को पापास्रव के संवर का हेतु तथा शुद्धोपयोगरूप
१. मोक्षमार्गप्रकाशक / प्रथम अधिकार / पृ० ७
२. बृहद्द्रव्यसंग्रह/टीका / गाथा ५७, पृ० २०८-२०९
३. सर्वार्थसिद्धि ७/१
४. वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य ।
चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।। बृहद्रव्यसंग्रह / गाथा ३५
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