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________________ १४२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मिथ्याबुद्धियों के विनाश से होती है। मिथ्याबुद्धियों का विनाश न केवल निश्चयनय के अवलम्बन से होता है, न केवल व्यवहारनय के, अपितु परस्परसापेक्ष दोनों नयों के अवलम्बन से होता है। निश्चयनय के द्वारा शरीरादि में आत्मादिबुद्धि का विनाश... निश्चयनय के अवलम्बन से परमार्थभूत ( नियतस्वलक्षणसिद्ध ) आत्मा तथा परमार्थ-मोक्षमार्ग का बोध होता है। इससे जीव की जो अनादिकाल से अपने को देहरूप या मोहरागादिरूप समझने तथा परद्रव्यों को सुख का हेतु एवं अपना मानने की मिथ्याबुद्धि है, वह नष्ट हो जाती है और वह स्वयं को अनन्तज्ञानादि शक्तियों से सम्पन्न शुद्धचैतन्यस्वरूप अनुभव करता है। उसे यह निश्चय हो जाता है कि मोहरागादि भाव उसके स्वाभाविक भाव नहीं हैं, अपितु कर्मोपाधिजन्य हैं तथा शरीर चेतनआत्मा से भिन्न जड़तत्त्व है। उसका संयोग कर्मवश हुआ है। सांसारिक वस्तुएँ न सुखमय हैं, न दुःखमय। एकमात्र स्वात्मा ही आनन्द का स्रोत है, क्योंकि आनन्द उसका स्वभाव है। वह अनुभव करता है कि मैं मोहकर्मजनित अज्ञानवश स्वात्मस्वरूप की उपलब्धि से वंचित होकर संसारभ्रमण कर रहा हूँ। इससे मुक्त होने पर ही निजस्वरूप एवं शाश्वत सुख की उपलब्धि हो सकती है। मुक्त होने की शक्ति मुझमें ही है। मेरा स्वभाव ही मोक्ष का मार्ग है, अत: वही उपादेय है। इस प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसी प्रकार जो केवल शुभप्रवृत्तियों को ही मोक्ष का मार्ग समझते हैं उनका भ्रम भी दूर हो जाता है। निश्चयनय द्वारा उन्हें मोक्ष का परमार्थ मार्ग ज्ञात हो जाने पर वे आत्म-स्वभाव को ही वास्तविक मोक्षमार्ग समझने लगते हैं। इस प्रकार निश्चयनय के अवलम्बन से व्यवहार को परमार्थ समझने की मिथ्याबुद्धि नष्ट हो जाती है और जीव परमार्थ को ही परमार्थ बुद्धि से ग्रहण करता है। व्यवहारनय के द्वारा सर्वथा शुद्धत्व की मिथ्याबुद्धि का विनाश व्यवहारनय के द्वारा जीव को स्वयं की संसारपर्याय का ज्ञान होता है। इससे जो एकान्तनिश्चय का अवलम्बन कर स्वयं को सर्वथा शुद्ध समझने लगते हैं उनकी मिथ्याबुद्धि विनष्ट हो जाती है। मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने के लिये अपनी संसारपर्याय का ज्ञान और उसमें विश्वास अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना जीव अपने को बन्धन में बँधा हुआ अनुभव ही नहीं करेगा, तो मोक्ष के लिये प्रयत्न कैसे करेगा ? इसीलिये आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है – “राग-द्वेष-मोह से जीव का जो परमार्थत: भेद है, केवल उसे ही दर्शाया जाय और जीव केवल उसे ही सत्य माने तो मोक्ष-मार्ग अपनाने की आवश्यकता ही सिद्ध न होगी, जिससे जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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