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निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता । १४३
कभी मुक्ति का प्रयत्न न करेगा।"" आचार्य जयसेन का कथन है -- “जब जीव को यह ज्ञान होता है कि आत्मा रागादि का कर्ता है, रागादि भाव ही बन्ध के कारण हैं, तब वह रागद्वेषादि विकल्पजाल त्यागकर उनके विनाश हेतु निज शुद्धात्मा का ध्यान करता है। इससे रागादि का विनाश होता है और आत्मा शुद्ध हो जाता है।
__आत्मा का देह के साथ जो विलक्षण संश्लेषरूप अभेद है तथा धनसम्पत्ति, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्र्यादि के साथ लौकिक स्व-स्वामिसम्बन्ध है इनका ज्ञान भी व्यवहारनय के द्वारा होता है। यह ज्ञान भी मोक्ष के लिये अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा और शरीर के कथंचित् अभेद की अनुभूति न हो तो जीवों के शरीर का घात करने से हिंसा घटित नहीं होगी। उससे कर्मबन्ध के अभाव का प्रसंग आएगा और कर्मबन्ध के अभाव में मोक्ष की आवश्यकता सिद्ध न होगी। ऐसा होने पर जीव मोक्षमार्ग में प्रवृत्त न होगा, जिससे उसका मुक्त होना असम्भव हो जाएगा। इस तथ्य का निरूपण आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की ४६वी गाथा की टीका में किया है, जिसका विवरण पूर्व में दिया जा चुका है।
इसी प्रकार धन-सम्पत्ति एवं कुटुम्बीजनों के साथ जीव का जो लौकिक स्व-स्वामिसम्बन्ध है, उसे मान्यता न दी जाय, तो अदत्तादानरूप चोरी, परस्त्री-परपुरुष-गमनरूप अब्रह्म तथा बाह्यवस्तुसंग्रहरूप परिग्रह के पाप घटित नहीं होंगे। तब भी उपर्युक्त प्रकार से मोक्ष असम्भव हो जाएगा। सार यह है कि व्यवहारनय संसारपर्याय को दृष्टि में लाकर जीव की स्वयं को सर्वथा शुद्ध समझने की मिथ्याबुद्धि नष्ट करता है और पर्याय की अपेक्षा अशुद्ध होने की प्रतीति कराता है, जिससे वह मोक्ष की ओर उन्मुख होता है। सम्यग्दर्शन के लिए संसारपर्याय के ज्ञान की आवश्यकता बतलाते हुए पंडित टोडरमल जी लिखते हैं -
___ “पर्याय की अपेक्षा स्वयं को शुद्ध मानने से महाविपरीतता होती है। इसलिये अपने को द्रव्यपर्यायरूप अवलोकन करना चाहिये, पर्याय की दृष्टि से अवस्थाविशेषरूप समझना चाहिये। इसी रूप में चिन्तन करने से जीव सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि सच्चा अवलोकन किये बिना सम्यग्दृष्टि संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है?"३
१. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४६ २. “रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागादय एव बन्धकारणमिति यदा जानाति
जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति। ततश्च रागादिविनाशो भवति। रागादिविनाशे चात्मा शुद्धो भवति।"
प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति २/९७ ३. मोक्षमार्गप्रकाशक/सप्तम अधिकार/पृ० २००
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