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________________ निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता / १४१ होते हुए भी प्रमाण के लिये अनुकूल हैं। दोनों मिलकर ही वस्तु के पूर्णस्वरूप का संकेत करते हैं। "" किसी एक नय के कथन को ग्रहण करने तथा दूसरे नय के कथन का निषेध करने से दृष्टि में मिथ्यात्व आता है । निश्चय को ही एकान्तरूप से ग्रहण करने वालों के विषय में पंडित टोडरमल जी कहते हैं। ― “जिनवाणी में तो विभिन्न नयों की अपेक्षा वस्तुतत्त्व का भिन्न-भिन्न रूप में निरूपण किया गया है, किन्तु एकान्तनिश्चयावलम्बी एकमात्र निश्चयनयात्मक कथन को ग्रहण कर मिथ्यादृष्टि बनते हैं । २ वे आगे लिखते हैं “निश्चय का निश्चयरूप और व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान करना योग्य है। एक ही नय का श्रद्धान करने से एकान्त मिथ्यात्व होता है । " समयसार में कहा गया है कि " व्यवहारनय अभूतार्थ है और निश्चयनय भूतार्थ । भूतार्थ का आश्रय लेने वाला जीव ही सम्यग्दृष्टि होता है। * इसका तात्पर्य यह नहीं है कि व्यवहारनिरपेक्ष निश्चयनय का आश्रय लेने से जीव सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि व्यवहारनिरपेक्ष निश्चयनय तो मिथ्या नय है, मिथ्या नय का आश्रय लेनेवाला सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? अत: इसका तात्पर्य यह है कि परमार्थ को ही परमार्थबुद्धि से ग्रहण करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि होता है, व्यवहार को परमार्थबुद्धि से ग्रहण करनेवाला नहीं। " किन्तु, चूँकि निश्चयनय व्यवहारनय - सापेक्ष है, अतः व्यवहारनय के विषयभूत धर्म को व्यवहारनय से सत्य स्वीकार किये बिना जीव परमार्थ को परमार्थबुद्धि से ग्रहण नहीं कर सकता। इसलिये जो परमार्थ को परमार्थ बुद्धि से ग्रहण करता है वह व्यवहार के विषय को व्यवहारनय की अपेक्षा सत्य स्वीकार करता ही है - यह अभिप्राय उक्त तात्पर्य से स्वयमेव ध्वनित होता - ― १. 'सागर में विद्यासागर स्मारिका', पृ० ५१ २. मोक्षमार्गप्रकाशक / सप्तम अधिकार / पृ० १९८ ३. वही / सप्तम अधिकार / पृ० २५० ४. ववहारोऽभूयत्यो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । ५. भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।। समयसार /गाथा ११ “ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते ते समयसारमेव न चेतयन्ते । य एव परमार्थं परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते त एव समयसारं चेतयन्ते । " वही / आत्मख्याति / गाथा ४१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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