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________________ १४० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन से वेदान्तमत की तरह संसार सर्वथा अवस्तु ठहरेगा, जिससे एकान्तपक्ष आ जाने से मिथ्यात्व का प्रसंग आएगा। इस स्थिति में शुद्धनय का अवलम्बन भी मिथ्या सिद्ध होगा। अत: सभी नयों की कथंचित् सत्यार्थता का श्रद्धान करने से ही जीव सम्यग्दृष्टि होता है। परस्परसापेक्ष नय ही अज्ञाननिवारक परस्पर सापेक्ष होने पर ही निश्चय और व्यवहार नय प्रमाण के अवयव बनकर वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को प्रकाशित करने में समर्थ होते हैं और अज्ञान का निवारण करते हैं। आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव ने कहा है - भागवतं शास्त्रमिदं ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रवेदिन: शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्ति।"२ - जो इस भगवत्प्रणीत शास्त्र का निश्चय और व्यवहार नयों के समन्वय से अनुशीलन करते हैं, वे महापुरुष ही समस्त अध्यात्मशास्त्र के मर्म को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं और शाश्वत सुख के भोक्ता बनते हैं। परस्परसापेक्ष निश्चयव्यवहार नयों के द्वारा उपलब्ध ज्ञान से ही मिथ्यात्व का विनाश होता है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है - “यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ: शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयापहस्तितमोह: सन् . शुद्धात्मा स्यात्।" - जो केवल अपने विषय तक सीमित रहने वाले अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारनय का निषेध न करते हुए शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय से मोह का विनाश करता है ." वही शुद्धात्मा बनता है। भट्टारक देवसेन ने भी उपदेश दिया है - "मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिङ्गितं कृत्वा वस्तुस्वरूपं निर्णेयम्।"" अर्थात् मिथ्यात्व का विनाश करने के लिये निश्चय और व्यवहार दोनों के द्वारा वस्तुरूप का निर्णय करना चाहिये। वर्तमान युग के सुप्रसिद्ध आचार्य श्री विद्यासागर जी कहते हैं -- "जैसे नदी के किनारे परस्पर प्रतिकूल होकर भी नदी के लिये अनुकूल हैं, दोनों में ही नदी का स्वरूप विद्यमान है, वैसे ही निश्चय और व्यवहार नय एक-दूसरे के प्रतिकूल १. समयसार/भावार्थ/गाथा १४ ।। २. नियमसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १८७ ३. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/९९ । ४. श्रुतभवनदीपकनयचक्र ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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