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________________ निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता / १३९ से प्रतिपक्षी धर्म के अस्तित्व को स्वीकार न करें, तो दोनों मिथ्या सिद्ध होंगे, क्योंकि आत्मा नित्य-अनित्य, अभेद-सभेद, बद्ध-अबद्ध, शुद्ध-अशुद्ध आदि रूप से अनेकान्तात्मक है, अब यदि निश्चयनय स्वापेक्षया उसके नित्य, अभेद, अबद्ध, शुद्ध, आदि होने का निर्णय तो करे, किन्तु व्यवहारनय से उसका अनित्य, सभेद बद्ध, अशुद्ध आदि होना स्वीकार न करे तो आत्मा एकान्तात्मक सिद्ध होगा जो मिथ्या है। इस प्रकार मिथ्या-निर्णय का हेतु होने से निश्चयनय मिथ्या हो जायेगा। इसी प्रकार व्यवहारनय आत्मा को स्वापेक्षया अनित्य, सभेद, बद्ध, अशुद्ध आदि निर्णीत करे, किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा उसका नित्य, अभेद, अबद्ध, शुद्ध आदि होना स्वीकार न करे, तो इस प्रकार भी आत्मा एकान्तात्मक सिद्ध होगा। इस निर्णय के भी मिथ्या होने से व्यवहारनय मिथ्या हो जायेगा। दूसरे, परस्परविरुद्ध धर्मों में से एक का निषेध होने पर दूसरे का भी निषेध हो जाता है, जिससे धर्म के अभाव में धर्मी ( वस्तु ) के ही लोप का प्रसंग आता है। इसके अतिरिक्त प्रतिपक्षी नय के विषय का अभाव होने पर उस नय का भी अभाव हो जाता है और एक नय के अभाव में दूसरे का भी अस्तित्व नहीं रहता। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है - य एव नित्य-क्षणिकादयों नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ।। - जो नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मों का प्रतिपादन करनेवाले परस्पर प्रतिपक्षी नय हैं, वे एक-दूसरे से निरपेक्ष होने पर एक-दूसरे के अस्तित्व को मिथ्या सिद्ध करते हैं, किन्तु परस्पर सापेक्ष होने पर अपने को भी सत्य सिद्ध करते हैं, और दूसरे को भी। एक-दूसरे को स्वीकार करके वे सर्वथात्व के दोष से मुक्त हो जाते हैं और अपने को समीचीन बनाकर अपने अस्तित्व की रक्षा कर लेते हैं – “सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते।" समयसार के सुप्रसिद्ध हिन्दी व्याख्याकार पंडित जयचन्द जी लिखते हैं कि शुद्धनय ( निश्चयनय ) को सत्यार्थ ( भूतार्थ ) कहा गया है, इससे ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि अशुद्धनय ( व्यवहारनय ) सर्वथा असत्यार्थ है। ऐसा मानने १. अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ।। स्वयम्भूस्तोत्र/श्लोक २२ २. वही/श्लोक ६१ ३. वही/श्लोक १०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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