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१३८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
निश्चयनय से अबद्ध है' तब 'व्यवहारनय से बद्ध है' यह अर्थ अपने आप ध्वनित होता है, क्योंकि निश्चयनय केवल निरुपाधिक अवस्था की अपेक्षा से ही अबद्ध होने का निर्णय देता है, सोपाधिक अवस्था की अपेक्षा नहीं। सोपाधिक अवस्था व्यवहारनय का विषय है, इसलिये व्यवहारनय की अपेक्षा आत्मा का बद्ध होना निश्चयनय स्वीकार करता है। आचार्य जयसेन इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते
हैं
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“शुद्धनिश्चयनय से जीव अकर्ता, अभोक्ता तथा क्रोधादि भावों से भिन्न है, ऐसा कथन करने पर, दूसरे पक्ष में वह व्यवहार से कर्ता, भोक्ता तथा क्रोधादि भावों से अभिन्न है, यह आशय बिना कहे ही फलित होता है। जैसे 'यह देवदत्त दायीं आँख से देखता है' ऐसा कहने पर 'बायीं आँख से नहीं देखता है' यह बिना कहे ही सिद्ध होता है, क्योंकि निश्चयनय और व्यवहारनय परस्पर सापेक्ष हैं। किन्तु जो सांख्य या सदाशिव मत के अनुयायी इस प्रकार परस्परसापेक्ष नयविभाग नहीं मानते उनके मत में जैसे शुद्धनिश्चयनय से आत्मा अकर्ता तथा क्रोधादि से भिन्न होता है वैसे ही व्यवहारनय से भी सिद्ध होता है। इस स्थिति में आत्मा का क्रोधादिरूप से परिणमित होना घटित नहीं होता। इससे सिद्धों के समान कर्मबन्ध के अभाव का तथा कर्मबन्ध के अभाव में सर्वदा मुक्त रहने का प्रसंग उपस्थित होता है। किन्तु यह प्रत्यक्ष के विरुद्ध है, क्योंकि संसार प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है।'
इस व्याख्यान से निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता का अभिप्राय भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है। निरपेक्षा नया मिथ्या:
यदि निश्चय और व्यवहार परस्पर निरपेक्ष हों, अर्थात् एक-दूसरे की अपेक्षा
१. गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य ।
सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।। समयसार/गाथा ६० २. "किञ्च शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्याकर्तृत्वमभोक्तृत्वं च क्रोधादिभ्यश्च भिन्नत्वं च भवतीति
व्याख्याने कृते सति द्वितीयपक्षे व्यवहारेण कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च क्रोधादिभ्यश्चाभिन्नत्वं च लभ्यत एव। कस्मात् ? निश्चयव्यवहारयोः परस्परसापेक्षत्वात्। कथमिति चेत् ? यथा दक्षिणेन चक्षुषा पश्यत्ययं देवदत्त:, इत्युक्ते वामेन न पश्यतीत्यनुक्तसिद्धमिति। ये पुनरेवं परस्परसापेक्षनयविभागं न मन्यन्ते साङ्ख्यसदाशिवमतानुसारिणस्तेषां मते यथा शद्धनिश्चयनयेन कर्ता न भवति क्रोधादिभ्यश्च भिन्नो भवति तथा व्यवहारेणापि। ततश्च क्रोधादिपरिणमनाभावे सति सिद्धनामिव कर्मबन्धाभावः। कर्मबन्धाभावे संसाराभाव: संसाराभावे सर्वदा मुक्तत्वं प्राप्नोति। स च प्रत्यक्षविरोधः, संसारस्य प्रत्यक्षेण दृश्यमान
त्वादिति।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ११३-११५ ३. आप्तमीमांसा/कारिका, १०८ -
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