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________________ १३२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन को जीव का स्वकीय परिणाम बतलाया है और अशुद्धनिश्चयनय के अभिप्राय से ही उन्होंने यह कहा है कि आत्मा जिस शुभ-अशुभ भाव को करता है उसका ही वह कर्ता होता है और उसी का भोक्ता, क्योंकि निश्चयनय से तो उन्होंने इसका निषेध किया है। आचार्य जयसेन का कथन है कि यत: अशुद्ध ( कर्मोपाधियुक्त ) जीव रागादिरूप से परिणमित होता है, इसलिये अशुद्धनिश्चयनय से रागादि भी जीव के स्वभाव कहलाते हैं - "कर्मकर्तृत्वप्रस्तावाद् अशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यन्ते।"२ चूँकि हर्षविषादरूप सुख-दुःख की उत्पत्ति अशुद्धावस्था में होती है, इसलिए जीव अशुद्धनिश्चयनय से ही उनका भोक्ता सिद्ध होता है -- “स एवाशुद्धनिश्चयनयेन हर्षविषादरूपं सुखदुःखं च भुङ्क्ते।"३ रागादि का सद्भाव अशुद्धावस्था में ही होता है, इसलिये जीव के द्वारा रागादि का परित्याग किया जाना अथवा भावकर्मों का दहन किया जाना भी अशुद्धनिश्चयनय से ही घटित होता है। निम्नलिखित निरूपण इस तथ्य पर प्रकाश डालते “यश्चाभ्यन्तरे रागादिपरहिारः स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।" "भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन।"५ भगवान् के केवलज्ञानादि अनन्त गुणों का स्मरणरूप भावनमस्कार भी अशुद्धनिश्चयनय से ही वास्तविक सिद्ध होता है, क्योंकि अरहन्तादि के प्रति भक्तिपरिणाम-रूप प्रशस्तराग अशुद्ध जीव में ही उत्पन्न होता है, इसलिए श्री ब्रह्मदेव ने कहा है - "केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारः पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।" एकदेशशुद्धनिश्चयात्मक निरूपण ___मोहनीय कर्म की जिन प्रकृतियों का उदय शुद्धोपयोग को रोकता है उनका १. जं भाव सुहमसुहं करोदि आदा स तस्स खलु कत्ता । तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ।। समयसार/गाथा १०२ २. पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ६१ ३. बृहद्र्व्य संग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा ९ ४. वही/गाथा ४५ ५. परमात्मप्रकाश/ब्रह्मदेवटीका/दोहा १ ६. वही/दोहा १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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