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व्यवहारनय के भेद / १३३
उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर आत्मा एकदेश ( अंशत: ) शुद्ध हो जाता है। इस अवस्था में उसमें शुद्धपयोग की उत्पत्ति होती है, जिसे भावसंवर, भावनिर्जरा
और भावमोक्ष भी कहते हैं। अत: एकदेशशुद्धनिश्चयनय से देखने पर जीव शुद्धोपयोग अथवा भावसंवर आदि का कर्त्ता सिद्ध होता है। इसका निरूपण श्रीब्रह्मदेव ने इन शब्दों में किया है -
“सम्यग्दृष्टेस्तु संवरनिर्जरामोक्षपदार्थानां द्रव्यरूपाणां यत्कर्तृत्वं तदप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण जीवभावपर्यायरूपाणां तु विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेनेति।"
-सम्यग्दृष्टि जीव का द्रव्यरूप ( पुद्गलपरिणामरूप ) संवर, निर्जरा और मोक्ष पदार्थों का कर्तृत्व अनुपचिरत ( जीवसंश्लिष्ट-परद्रव्यसम्बन्धमूलक ) असद्भूतव्यवहारनय से घटित होता है तथा भावरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष का कर्तृत्व एकदेशशुद्धनिश्चयनय से।
अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त जीव में जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट मात्रा में शुद्धोपयोग पाया जाता है। इन पर्यायों में स्थित जीव एकदेशशद्ध उपादान होता है, अत: जीव में शुद्धोपयोग का सद्भाव एकदेशशुद्धनिश्चयनय से उपपन्न होता है। निम्नलिखित व्याख्यान में यह तथ्य प्रकाशित किया गया है -
“तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।" शुद्धनिश्चयनयात्मक निरूपण
मूलपदार्थावलम्बी अथवा द्रव्याश्रित निश्चयनय से भिन्नता दर्शाने के लिये इसे क्षीणोपाधिमूलक शुद्धनिश्चयनय नाम देना उचित होगा, क्योंकि इसमें प्रयुक्त 'शुद्ध' विशेषण घाती कर्मों के क्षय से उत्पन्न शुद्धता का वाचक है। केवलज्ञानादिभाव इसी शुद्धनिश्चयनय से जीव के स्वभाव घटित होते हैं, जैसा कि आचार्य जयसेन ने कहा है - "शुद्धनिश्चयेन केवलज्ञानादिशुद्धभावा: स्वभावा भण्यन्ते।" द्रव्यार्थिक निश्चयनय तो निरुपाधिक आत्मा का अवलम्बन कर निर्णय करता है, अत: उसकी अपेक्षा इन औपाधिक भावों का अस्तित्व ही घटित नहीं होता।
आलापपद्धतिकार ने 'केवलज्ञानादि जीव हैं', इस प्रकार निरुपाधिक गुण१. बृहद्र्व्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा २७ २. वही/गाथा ३४ ३. पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ६१
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