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________________ [ चौदह ] व्यवहार नयों के लक्षण नयी शब्दावली में निबद्ध किये गये हैं। इनकी परिभाषाओं में लेखक ने उन परस्परविरुद्ध वस्तुधर्मों या पक्षों का शब्दत: निर्देश किया है, जिनका अवलम्बन कर वस्तुस्वरूप का निर्णय करने से निर्णायक ( ज्ञाता या प्रमाता) की दृष्टि निश्चय अथवा व्यवहार संज्ञा पाती है। इससे यह निर्णय करना अत्यन्त सरल हो जाता है कि ज्ञाता की कोई दृष्टि निश्चयनय और कोई दृष्टि व्यवहारनय शब्द से क्यों अभिहित की जाती है। इसी प्रकार जिस-जिस धर्म का अवलम्बन कर निश्चयदृष्टि ( निश्चयनय ) प्रवृत्त होती है, उस-उस धर्म के आधार पर निश्चयदृष्टि के नामकरण किये गये हैं, यथा -- मूलपदार्थावलम्बिनी निश्चयदृष्टि, मूलस्वभावावलम्बिनी निश्चयदृष्टि इत्यादि। इसी तरह अपने विषय-विशेष का अवलम्बन करके प्रवृत्त होनेवाली व्यवहारदृष्टि को सोपधिक-पदार्थावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि, बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि आदि नाम दिये गये हैं। इससे यह तत्काल स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयदृष्टि या व्यवहारदृष्टि से वस्तु का जिस रूप में निर्णय किया गया है वह उसके किस पक्ष के आधार पर किया गया है ? असद्भूतव्यवहारनय को मात्र उपचार अर्थात् अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोपण ( अन्य वस्तु को अन्य वस्तु के नाम से अभिहित करना ) न समझ लिया जाय, इस सम्भावना के निराकरण हेतु लेखक ने इस नय के तीन भेद किये हैं - उपाधिमूलक, बाह्यसम्बन्धमूलक एवं उपचारमूलक, और यह सिद्ध किया है कि इनमें से केवल उपचारमूलक असद्भुतव्यवहारनय में ही अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म (या शब्द ) का अन्यत्र समारोपण होता है, शेष दो में नहीं। तथा व्याकरणशास्त्र एवं लोकव्यवहार के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि उपचार अर्थात् प्रस्तुत वस्तु के लिए अप्रस्तुत वस्तु के वाचक शब्द का प्रयोग, प्रस्तुत वस्तु के ही धर्मविशेष को लक्षणा-व्यंजना नामक शब्दशक्तियों के द्वारा प्रतिपादित करने के लिये किया जाता है। अत: उपचार के द्वारा किया गया कथन केवले मुख्यार्थ की अपेक्षा असत्य होता है, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ की अपेक्षा नहीं। इन अर्थों की अपेक्षा वह सत्य ही होता इसी प्रसंग में लेखक ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि निश्चय और व्यवहार नय श्रुतज्ञान-प्रमाण के अवयव हैं, इसलिए वे प्रमाणैकदेश हैं। अत: व्यवहारनय की अपेक्षा किया गया कथन उतना ही सत्य होता है, जितना निश्चयनय की अपेक्षा किया गया कथन। यत: उपचार भी व्यवहारनय का एक भेद है और लक्षणा-व्यंजना के द्वारा वह वस्तुधर्म का ही प्रतिपादन करता है, अत: वह भी श्रुतज्ञान का अवयव होने से प्रमाणैकदेश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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