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________________ [ पन्द्रह ] यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि निश्चय और व्यवहार दोनों नयों से वस्तुगत सत्य का ही बोध होता है तो उनमें भेद किस बात का है ? दोनों के अलग-अलग नाम क्यों हैं? ये भिन्न नाम किस भिन्नता की ओर संकेत करते हैं? इसके समाधान हेतु लेखक ने वस्तुगत सत्य के दो भेदों की ओर ध्यान खींचा है। वे दो भेद हैं -- पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य। इसके लिए लेखक ने यह प्रमाण दिया है कि आचार्यों ने भिन्न-भिन्न वस्तुधर्मों के साथ पारमार्थिक और व्यावहारिक विशेषणों का प्रयोग किया है, यथा - "परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं ....' ( समयसार/आत्मख्याति ४१३ ), "व्यावहारिक नवतत्त्वेभ्यः" ( समयसार। आत्मख्याति ३८ )। इसलिए सत्य के ये दो रूप प्रामाणिक हैं। इनमें निश्चयनय पारमार्थिक सत्य का अवलम्बन कर वस्तुस्वरूप का निर्णय करता है और व्यवहारनय व्यावहारिक सत्य का। यही दोनों में भेद है। प्रस्तुतीकरण की एक नवीनता यह है कि लेखक ने अशुद्धनिश्चयादि नयों को निश्चयनय के भेदों में नहीं रखा है, अपितु जयसेनादि आचार्यों के वचनानुसार उन्हें असद्भूतव्यवहारनय के ही कुछ भेदों का नामान्तर मानते हुए व्यवहारनय के भेदों में ही परिगणित किया है। इससे निश्चयनय के विषय में व्यवहारनय के औपाधिकभावरूप विषय का मिश्रण न हो पाने से दोनों के लक्षणों की विभाजक रेखा सरल और स्पष्ट हो जाती है। ग्रन्थ में कुछ उल्लेखनीय विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। पहली यह कि विभिन्न निश्चयदृष्टियों और व्यवहारदृष्टियों से देखने पर आत्मादि पदार्थ जिस-जिस रूप में दिखाई देते हैं, उनका समयसारादि ग्रन्थों से उद्धरण देकर निरूपण किया गया है। इससे नयों का स्वरूप एवं आत्मादि पदार्थों का अनेकान्तरूप भली-भाँति हृदयंगम हो जाता है। दसरी विशेषता यह है कि इसमें इस प्रश्न का समाधान अत्यन्त युक्तिपूर्वक किया गया है कि वस्तुस्वरूप की प्रतिपत्ति और मोक्षप्राप्ति में निश्चय और व्यवहार नयों की क्या उपयोगिता है ? उन पर आश्रित उपदेश का ग्रहण और अनुसरण क्यों आवश्यक है? लेखक ने उन अनेक प्रयोजनों का अनुसन्धान किया है जो निश्चयनयात्मक और व्यवहारनयात्मक उपदेशों से सिद्ध होते हैं। लेखक ने प्रतिपादित किया है कि दोनों नय वस्तुस्वरूपविषयक अज्ञान का निवारण करते हैं। निश्चयनयात्मक उपदेश से आत्मा और शरीरादि के एकत्व का अज्ञान मिटता है तथा उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश से जीव और शरीर तथा जीव और रागादि के सर्वथा भिन्न होने की मिथ्या धारणा नष्ट होती है। निश्चयनयात्मक उपदेश सम्यक्त्वपूर्वक एवं सम्यक्त्वपरक शुभोपयोग के वास्तविक मोक्षमार्ग होने का भ्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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