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१३० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
समान जीव से भिन्न ठहरेंगे। किन्तु, वे अशुद्ध जीव के परिणाम हैं, चिद्विवर्त ( अशुद्धचैतन्यपरिणाम ) हैं, अत एव अशुद्धजीवरूप ही हैं, पुद्गलकर्म के समान पुद्गलरूप नहीं। इसी भेद की तुरन्त प्रतीति कराने के लिए भावपर्यायावलम्बी असद्भूतव्यवहारनय को अशुद्धनिश्चयनय आदि नाम दिये गए हैं और जीव को अशुद्धनिश्चयनय से रागादिभावों का कर्त्ता कहा गया है। किन्तु निरुपाधिक (मूल) पदार्थावलम्बी निश्चयनय से जीव में इन औपाधिक भावों का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, वह मात्र शुद्धचैतन्यस्वरूप ठहरता है, अत: इस नय की अपेक्षा रागादिभाव परभाव अर्थात पुद्गल के भाव हैं। इस कारण रागादिभावों को जीव का भाव प्रतिपादित करनेवाला अशुद्धनिश्चयनय निश्चयनय की दृष्टि से असद्भूतव्यवहारनय ही है। इस तथ्य की ओर आचार्य जयसेन ने समयसार की वृत्ति में बार-बार ध्यान आकृष्ट किया है। अशुद्धनिश्चयनय के असद्भूतव्यवहारनय होने की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जहाँ आचार्य देवसेन ने मतिज्ञानादि को अशुद्धनिश्चयनय से जीव संज्ञा दी है, वहीं नेमिचन्द्राचार्य ने उन्हें व्यवहारनय ( असद्भूत ) से जीव का लक्षण बतलाया है।
अशुद्धनिश्चयनय के समान एकदेशशुद्धनिश्चयनय तथा शुद्धनिश्चयनय ( कर्मक्षयोपाधिमूलक निश्चयनय ) भी असद्भूतव्यवहारनय के ही नामान्तर हैं। श्री माइल्ल धवल ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिये इन ( एकदेश शुद्ध एवं शुद्धनिश्चय ) नयों के विषयभूत औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भावों को असद्भूत कहा है जिनमें शुद्धोपयोग, केवलज्ञानादि तथा सिद्धत्व पर्यायें सम्मिलित हैं।
यहाँ इस तथ्य को हृदयंगम कर लेना चाहिये कि जिनेन्द्रदेव ने व्यवहारनय
१. "भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मानि भान्ति नुः।" आप्तपरीक्षा/कारिका ११४ २. समयसार/गाथा ५०-५५ ३. “यथा द्रव्यकर्मणां व्यवहारेण कर्तृत्वं तथा रागादिभावकर्मणां च द्वयोर्द्रव्यभावकर्मणो
रेकत्वं प्राप्नोतीति। नैवं, रागादिभावकर्मणां योऽसौ व्यवहारस्तस्याशुद्धनिश्चयसंज्ञा भवति द्रव्यकर्मणां भावकर्मभिः सह तारतम्यज्ञापनार्थम्। कथं तारतम्यमिति चेत्। द्रव्यकर्माण्यचेतनानि भावकर्माणि च चेतनानि, तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया अचेतनान्येव। यत: कारणदशुद्धनिश्चयोऽपि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। अयमत्र भावार्थः -द्रव्यकर्मणां कर्तृत्वं भोक्तृत्वं चानुपचरितासद्भूतव्यवहारेण रागादिभावकर्मणां चाशुद्धनिश्चयेन।
स च शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एवेति।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ११३-११५ ४. बृहद्रव्यसंग्रह/गाथा ६ ५. द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र/गाथा २९२
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