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________________ व्यवहारनय के भेद / १२९ प्रमत्तसंयत गुणस्थानपर्यन्त ज्ञानावरणादिकर्मों के उदय के साथ चारित्रमोहनीय की शुद्धेपयोगरोधक कर्मप्रकृतियों के उदय से भी अशुद्ध होता है। इसलिए इन गुणस्थानों की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय से जीव प्रधानतया शुभभाव का तथा गौणतः अशुभभाव का कर्त्ता भी सिद्ध होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायगुणस्थान पर्यन्त, यद्यपि ज्ञानावरणादि के उदय से वह अशुद्ध होता है और केवलज्ञानपर्याय के समान शुद्ध नहीं होता, तथापि शुद्धोपयोगरोधक कषायों के उपशम या क्षयोपशम या क्षय से उसमें आंशिक शुद्धता आ जाती है।' यह जीव की एकदेशशुद्धोपादान अवस्था है। अतः एकदेशशुद्धोपादानावलम्बी एकदेशशुद्धनिश्चयनय से विचार करने पर आत्मा संवर, निर्जरा और मोक्षरूप भावपर्यायों का कर्त्ता ठहरता है' अथवा उसका शुद्धोपयोगी होना घटित होता है। तथा केवलज्ञानपर्याय में स्थित जीव घातिकर्मचतुष्टय के क्षय से और सिद्धपर्यायस्थ जीव आठों कर्मों के क्षय से पूर्ण शुद्ध होता है, जो जीव की शुद्धोपादान - अवस्था है। इस शुद्धोपादान की दिशा से विचार करनेवाले शुद्धनिश्चयनय ( क्षीणोपाधिमूलक निश्चयनय ) से केवलज्ञानादि को जीव संज्ञा देना संगत होता है। जीव की ये अशुद्धोपादानादिरूप तीनों अवस्थाएँ भावपर्यायावलम्बी उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय का विषय हैं, अतः इस नय के अशुद्धनिश्चयनयादि तीनों उपनाम सार्थक हैं। अब प्रश्न है कि इस नय को अशुद्धनिश्चयादि संज्ञाएँ देने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? उत्तर यह है कि असद्भूतव्यवहारनय का मुख्य लक्षण भिन्नवस्तुसम्बन्ध का प्रकाशन करना है, जैसा कि कहा गया है – “भिन्नवस्तुसम्बन्धविषयोऽसद्भूतव्यवहारः।” इसलिए जैसे असद्भूतव्यवहारनय से जीव को पुद्गल कर्मों का कर्त्ता कहने पर पुद्गलकर्मों का जीव से भिन्न होना सूचित होता है, वैसे ही असद्भूतव्यवहारनय से रागादिभावों का कर्त्ता कहने पर वे भी पुद्गलकर्मों के १. “ अशुद्धनिश्चयमध्ये मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानेषूपयोगत्रयं व्याख्यातं तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगः कथं घटत इति चेत् तत्रोत्तरं दीयते शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति तथैव फलभूतकेवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति किन्तु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते।” बृहद्द्रव्यसंग्रह / ब्रह्मदेवटीका / गाथा ३४ - २ . वही/गाथा २७ ३. "शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति ।" आलापपद्धति / सूत्र २१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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