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________________ १२८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन भावपर्यायावलम्बी के अशुद्धनिश्चयादि भेद यतः भावपर्यायावलम्बी उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय औपाधिक चैतन्यपरिणाम का अवलम्बन कर जीव के स्वरूप का परामर्श करता है, इसलिए जीव के स्वकीय भाव का जीवरूप से निश्चायक होने के कारण उसे अशुद्धनिश्चयनयादि नाम दिये गए हैं। निश्चय शब्द वस्तु के स्वकीय भाव में ही वस्तु के अस्तित्व का निश्चय किये जाने का सूचक है। भावपर्यायावलम्बी असद्भूतव्यवहारनय यही करता है, इसलिए उसकी अशुद्धनिश्चयादि संज्ञाएँ युक्तिसंगत हैं। ये संज्ञाएँ तीन हैं : अशुद्धनिश्चयनय, एकदेशशुद्धनिश्चयनय तथा शुद्धनिश्चनयनय। ये जीव की त्रिविध औपाधिक अवस्थाओं पर आश्रित हैं जिन्हें क्रमश: अशुद्धोपादान, एकदेशशुद्धोपादान एवं शुद्धोपादान नाम दिये गए हैं। केवलज्ञान की उत्पत्ति से पूर्व ज्ञानावरणादि कर्मों से आवृत होने के कारण जीव सामान्यत: अशुद्ध ( संसारी या छद्मस्थ ) होता है। यह उसकी अशुद्धोपादानअवस्था है। इसीलिए अशुद्धोपादानावलम्बी अशुद्धनिश्चयनय से मतिज्ञानादि को जीव कहना संगत होता है। वह सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के पूर्व दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय से भी अशुद्ध होता है। इसलिए अशुद्धनिश्चयनय से रागादिभावों का जीवस्वभाव होना भी घटित होता है। सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर १. (क) “ननु वर्णादयो बहिरङ्गास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत् संश्लेषसम्बन्धो भवतु न चाभ्यन्तराणां रागादीनां तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यमिति। नैवं द्रव्यकर्मबन्धापेक्षया योऽसौऽसद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ५७ (ख) “मिथ्यादृष्टेर्जीवस्य पुद्गलद्रव्यपर्यायरूपाणामास्रवबन्धपुण्यपापपदार्थानां कर्तृत्वमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायाणां पुनरशुद्धनिश्चयनयेनेति।" बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा २७ २. (क) “छद्म ज्ञानदृगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः।" धवला, १/१,१,१९ (ख) “संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषुगतिष्विति घातिकर्मकलाप: संसारः। तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्था: छद्मस्थाः।" वही, १३/५,४,१७ ।। (ग) “मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायपर्यन्तमुपर्युपरि मन्दत्वात् तारतम्येन तावदशुद्धनिश्चयो वर्तते। तस्य मध्ये पुनर्गुणस्थानभेदेन शुभाशुभशुद्धानुष्ठानरूपयोगत्रयव्यापार स्तिष्ठति।" बृहद्र्व्य संग्रह/ब्रह्मदेव/गाथा ३४ ३. “सोपाधिकविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा मतिज्ञानादयो जीव इति।" आलापपद्धति/सूत्र, २१९ ४. "अशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यन्ते।" पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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