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१२४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
यह भी समझना चाहिए के ये तीनों परमार्थतः आत्मा ही हैं।
इस गाथा में आचार्यश्री ने सद्भूतव्यवहारनयरूप भेददृष्टि का आश्रय लेकर जीव को दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप कहा है, अर्थात् उसमें गुण- गुणीरूप द्वैत दर्शाया है। तत्पश्चात् निश्चयनयरूप अभेददृष्टि का अवलम्बन कर दर्शनज्ञानादि गुणों को आत्मद्रव्यरूप एकवस्तु ही बतलाया है। इस प्रकार एक ही प्रकार की शब्दावली या कथन दृष्टिभेद से सद्भूतव्यवहारनयात्मक एवं निश्चनयात्मक दोनों हो सकता है।
निष्कर्ष यह कि प्रत्येक सद्भूतव्यवहारनयात्मक कथन गुण-गुणी या कर्त्ता - कर्मादि के कथंचिद् भेद और कथंचिद् अभेद पर आश्रित होता है' और भेद के द्वारा उनके एकवस्तुत्व रूप अभेद को दर्शाया जाता है जिससे लक्ष्यभूत वस्तु के स्वरूप का अधिगम होता है। अभेद की प्रतीति हुए बिना लक्ष्य वस्तु के स्वरूप की प्रतीति नहीं हो सकती। अतः प्रत्येक सद्भूतव्यवहारनयात्मक कथन अभेद की ओर दृष्टि ले जाने की अपेक्षा निश्चयनयात्मक भी होता है। निश्चयनय के प्रकरण में मौलिक अभेद की अपेक्षा स्वगुणपर्यायों के साथ ही जीव के स्वस्वामित्वादि सम्बन्ध प्रतिपादित किये गये हैं, अतः वे प्रतिपादन निश्चयनयात्मक हैं, किन्तु अद्वैत जीव में स्वस्वामित्वादि द्वैत के दर्शाये जाने से उक्त निरूपण सद्भूतव्यवहारनयात्मक भी हैं ।
सद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश के प्रयोजन
एक वस्तुभूत धर्म और धर्मी को सद्भूतव्यवहारनय ( संज्ञादिभेदावलम्बिनीदृष्टि ) का आश्रय लेकर जो भिन्न पदार्थों के रूप में निरूपित किया जाता है उसका प्रयोजन है अज्ञ शिष्यों को वस्तु का स्वरूप समझाना। यह वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन की अनिवार्य पद्धत है। उदाहरणार्थ, आत्मा किसी को दिखाई नहीं देता, किन्तु उसकी जानने-देखने की शक्तियाँ अर्थात् गुण सबके अनुभव में आते हैं, अतः गुणों का अलग से नाम लेकर आत्मा के स्वरूप और अस्तित्व का बोध कराना सम्भव होता है । वस्तुस्वरूप को हृदयंगम कराने का इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है । - इसलिए यद्यपि एकवस्तुभूत धर्म और धर्मी को भिन्न पदार्थों की तरह वर्णित करना. अयथार्थ है, तथापि यथार्थ की प्रतीति कराने का साधन है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने को म्लेच्छ भाषा की उपमा दी है। वे कहते हैं . सद्भूतव्यवहारनय जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। '
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१. " द्रव्यगुणानां कथञ्चिद्भेदे तथैवाभेदेऽपि व्यपदेशादयः सन्तीति । "
२. समयसार / गाथा ८
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पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति / गाथा ४६
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