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सद्भूतव्यवहारनय / १२५
- जैसे म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना कोई बात समझाना अशक्य है वैसे ही व्यवहारनय के बिना परमार्थ का उपदेश असम्भव है।
इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
"जैसे किसी म्लेच्छ से 'स्वस्ति' कहा जाय तो इसका अर्थ न समझ पाने के कारण वह मेढ़े के समान आँखें फाड़कर देखता रहता है, किन्तु, जब कोई म्लेच्छभाषा जाननेवाला उसे समझाता है कि 'स्वस्ति' शब्द का अर्थ है 'तुम्हारा कल्याण हो' तब आनन्द के आँसुओं से उसकी आँखें छलछला उठती हैं, वैसे ही अशिक्षित लोगों के सामने भी जब 'आत्मा' शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसके अर्थ से अनभिज्ञ होने के कारण वे कुछ भी नहीं समझ पाते और मेढ़े के समान आँखें फाड़कर देखते रहते हैं। किन्तु, जब व्यवहारपद्धति का आश्रय लेकर समझाया जाता है कि “जो दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप परिणमन करता है उसे आत्मा कहते हैं तब वे तुरन्त समझ जाते हैं। इस प्रकार अशिक्षित लोग म्लेच्छ के समान हैं और व्यवहारनय म्लेच्छभाषा के समान। अत: जैसे म्लेच्छभाषा के द्वारा यथार्थ बात ही समझायी जाती है, वैसे ही व्यवहारनय के द्वारा भी यथार्थ का ही प्रतिपादन किया जाता है। इसलिए परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय से उपदेश देना चाहिए। किन्तु, जैसे ब्राह्मण के साथ म्लेच्छभाषा का प्रयोग करना आवश्यक नहीं होता वैसे ही ज्ञानियों के साथ भी व्यवहारनयात्मक भाषा का व्यवहार अनावश्यक है।
यद्यपि जिस दृष्टि से निश्चयनय परमार्थ ( भूतार्थ ) है, उस अपेक्षा से व्यवहारनय परमार्थ नहीं है, तथापि उससे परमार्थ का ही प्रतिपादन होता है, अर्थात् व्यवहार-नयात्मक कथन से निश्चयनय का ही विषय लक्षणाशक्ति से लक्षित होता है। इस तथ्य की ओर संकेत आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में किया है जिसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
“जो श्रुत से केवल शुद्ध आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है", यह वाक्यरचना परमार्थ ( निश्चयनय से उपपन्न ) है तथा “जो समस्त श्रुतज्ञान को जानता है वह श्रुतकेवली है" यह व्यवहार है (यह वाक्यरचना सद्भतव्यवहारनय से उपपन्न है )। इस व्यवहारनयात्मक कथन में आत्मा को द्रव्यवाचक 'आत्मा' शब्द से वर्णित न कर गुणवाचक 'श्रुतज्ञान' शब्द से वर्णित किया गया है। यहाँ विचारणीय है कि निरूपित किया जानेवाला सम्पूर्ण ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? अनात्मा नहीं है, क्योंकि जो अनात्मा हैं उन पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों का,
१. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ८
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