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________________ सद्भूतव्यवहारनय / १२३ अभेद की अपेक्षा गुणगुण्यादिलक्षण की उपपत्ति यहाँ यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है कि संज्ञादिभेद की अपेक्षा एक वस्तु में गुण-गुणी आदिरूप भेद ( द्वैत ) उपपन्न होता है और प्रादेशिक अभेद की अपेक्षा गुण-गुणी आदि के लक्षण एवं अस्तित्व की उपपत्ति होती है। क्योंकि यदि गुण और गुणी सर्वथा भिन्न पदार्थ हों तो गुणी में गुण की नित्य सत्ता न होने पर एक विशिष्ट लक्षणवाले द्रव्य के रूप में उसका अस्तित्व घटित नहीं हो सकता और गुणी से पृथक् रहने पर आश्रय के अभाव में गुण का अस्तित्व सम्भव नहीं है।' जैसे ज्ञान गुण से ज्ञानी ( आत्मा ) के पृथक रहने पर ज्ञानलक्षणात्मक विशिष्ट द्रव्य के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती तथा आत्मा से पृथक् रहने पर आश्रय के अभाव में ज्ञानगुण का सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए वस्तुरूप से अभिन्न होने पर ही उनमें गुण-गुणीरूप लक्षण घटित होते हैं और उनका अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए गुण-गुणी, स्व-स्वामी, कर्त्ता-कर्म आदि के प्रादेशिक ( मौलिक ) अभेदरूप लक्षण पर दृष्टि डालने से गुण-गुणी आदि की एकवस्तुता भूतार्थ सिद्ध होती है और भिन्न वस्तुओं की गुणगुण्यादिरूपता अभूतार्थ। अत: गुणगुण्यादि का एकवस्तुत्वरूप स्वभाव अभेदाश्रित निश्चयनय से दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए कहा गया है - "निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते।"३ अर्थात् यदि निश्चयनय से वस्तु का चिन्तन किया जाय तो कर्ता और कर्म सदा एक वस्तुरूप प्रतीत होते हैं। इसलिए ‘जीव दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप है' इस कथन का जब संज्ञादिभेदाश्रित सद्भूतव्यवहारदृष्टि से परामर्श किया जायेगा तब एकवस्तुभूत जीव में गुणगुणीरूप भेद ( द्वैत ) के दर्शन होंगे और जब गुणगुणी के प्रादेशिक अभेद पर आश्रित निश्चयदृष्टि से अवलोकन करेंगे तब दोनों के एकवस्तुत्व की प्रतीति होगी। इस दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द की निम्नलिखित गाथा द्रष्टव्य है -- दंसणणाणचरित्तणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। - साधु को सदा दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपासना करनी चाहिए और १. जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे । . दव्वाभावं. पकुव्वंति ।। पञ्चास्तिकाय, गाथा ४४ २. (क) “गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।" तत्त्वार्थसूत्र/पञ्चम अध्याय/सूत्र ३८ (ख) “द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।" वही/पञ्चम अध्याय/सूत्र ४१ ३. समयसार/कलश, २१० ४. वही/गाथा १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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