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सद्भूतव्यवहारनय । ११३
“सत्तागुण द्रव्य से युतसिद्धत्व ( संयोगसिद्ध होने ) की अपेक्षा भिन्न नहीं है, क्योंकि उन दोनों में दण्ड और दण्डी के समान युतसिद्धत्व दिखाई नहीं देता। अयतसिद्धत्व की अपेक्षा भी उनका भिन्न पदार्थ होना घटित नहीं होता।' यदि कहा जाय कि 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति होने के कारण घटित होता है तो प्रश्न उठता है कि इसमें यह है' ऐसी प्रतीति किस कारण से उत्पन्न होती है ? कहा जाय कि भेद होने के कारण उत्पन्न होती है तो प्रश्न है कि भेद किस प्रकार का है ? प्रादेशिक अथवा अताद्भाविक ? प्रादेशिक तो हो नहीं सकता, क्योंकि युतसिद्धत्व का तो पूर्व में ही निषेध किया जा चुका है। यदि अताद्भाविक है तो उचित है, क्योंकि जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ऐसा आगम में कहा गया है। किन्तु अताद्भाविक भेद एकान्तरूप से 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति का हेतु नहीं है, क्योंकि वह स्वयं कभी प्रकट होता है, कभी लुप्त। उदाहरणार्थ, जब पर्याय की दृष्टि से द्रव्य का परामर्श किया जाता है तभी 'यह उत्तरीय शुभ्र है और यह उसका शुभ्रगुण है' इसके समान 'यह द्रव्य गुणवद् है और यह उसका गुण है' ऐसी प्रतीति होती है और उसके द्वारा अताद्भाविक भेद प्रकाशित होता है।"
“किन्तु जब द्रव्य का द्रव्य की अपेक्षा विचार करते हैं तब गुणत्व का भेद दृष्टि से ओझल हो जाता है और शुभ्रत्व में ही उत्तरीय की अनुभूति के समान गुण ही द्रव्यरूप से अनुभव में आता है। इस अद्वैत अवस्था में अताद्भाविक भेद समूल लुप्त हो जाता है। भेद के लुप्त हो जाने पर तन्निमित्तक प्रतीति ( 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति ) लुप्त हो जाती है। उसके लुप्त होने पर अयुतसिद्धत्व के निमित्त से सत्तागण और द्रव्य में जो पदार्थभेद की प्रतीति होती है वह भी अदृश्य हो जाती है। तब समस्तरूप से अकेला द्रव्य ही प्रतीति में आता है। किन्तु जब अताद्भाविक भेद प्रकाशित होता है तब उसके निमित्त से 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति
१. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/६ २. "इहेदमितिप्रतीतेरुपपद्यत इति चेत् किन्निबन्धना हीहेदमिति प्रतीतिः। भेदनिबन्धनेति
चेत् को नाम भेदः ? प्रादेशिक: अताद्भाविको वा? . न तावत्प्रादेशिकः, पूर्वमेव युतसिद्धत्वस्यापसारणात्। अताभाविकश्चेद् उपपन्न एव यद्रव्यं तन गुण इति वचनात्। अयं तु न खल्वेकान्तेनेहेदमितिप्रतीतेर्निबन्धनं, स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात्। तथाहि – यदेव पर्यायेणार्फाते द्रव्यं तदेव गुणवदिदं द्रव्यमयमस्य गुणः, शुभ्रमिदमुत्तरीयमयमस्य शुभ्रो गुण इत्यादिवदताभाविको भेद उन्मज्जति।"
वही/तत्त्वदीपिका २/६ ३. "तस्मादभेदनयेन सत्ता स्वयमेव द्रव्यं भवतीति।" वही/तात्पर्यवृत्ति २।८ ४. वही/तत्त्वदीपिका २/६
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