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________________ ११४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन - इस व्याख्य आविर्भूत होती है। उसके आविर्भूत होने पर अयुतसिद्धत्व के निमित्त से जो पदार्थभेद की प्रतीति होती है वह भी होने लगती है। किन्तु उस समय भी जैसे जलराशि से जल की तरंगें पृथक नहीं होतीं वैसे ही द्रव्य की पर्याय होने से सत्तागुण द्रव्य से पृथक् नहीं होता। ऐसा होने के कारण सत्ता स्वयं द्रव्यरूप से प्रतीत होती है।" इस व्याख्यान से स्पष्ट होता है कि वस्तु और उसके धर्मों में संज्ञादिभेद ( अताद्भाविक भेद ) होने के कारण ही पर्याय ( संज्ञादिभेद ) की दिशा से ( व्यवहारनय से ) अवलोकन करने पर 'यह इसका है', 'यह इसमें है', 'यह इसका धर्म है', 'यह इसका धर्मी है', 'यह इसका स्व है', 'यह इसका स्वामी है', इत्यादि प्रकार से धर्म और धर्मी में स्व-स्वामी, आधाराधेय आदि द्वैत ( अताद्भाविक भेद ) की प्रतीति होती है। एक वस्तु में ये दो भाव अर्थात् स्वस्वामिभाव, आधाराधेयभाव आदि वास्तविक होते हैं, काल्पनिक नहीं, क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द के वचन की व्याख्या करते हुए श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है – “ज्ञानी इस निश्चयदृष्टि का अवलम्बन करता है कि जो जिसका स्वभाव है वह उसका स्व है और उसी का वह स्वामी।"३ तथा “स्वभाव के साथ ही वस्तु का आधाराधेय सम्बन्ध है।"" किन्तु इन दो भावों के कारण वस्तु में जो द्वैत ( भेद ) की प्रतीति होती है वह द्वैत मौलिक ( प्रदेशगत या सत्तागत ) न होकर संज्ञादि भेद पर आश्रित होता है, इसलिए वह बाह्यभेदावलम्बिनी सद्भूतव्यवहारदृष्टि से भूतार्थ सिद्ध होता है, मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से नहीं। कर्ता-कर्मत्वादि भेद का हेतु वस्तु और उसके धर्मों में संज्ञादि का भेद होने से ही कर्ता-कर्म आदि का भेद घटित होता है। उदाहरणार्थ, आत्मा और दर्शनज्ञानादि धर्मों में संज्ञादि की दृष्टि से भिन्नता है इसीलिए आत्मा दर्शनज्ञानादि परिणामों का कर्ता और दर्शनज्ञानादि परिणाम उसके कर्म कहलाते हैं। अभेदआत्मा में कर्ता-कर्मादि का यह भेद यथार्थ है यह निम्नलिखित वचनों से सिद्ध होता है - १. “यदा तु भेद उन्मज्जति तस्मिन्नुन्मज्जति तत्प्रत्यया प्रतीतिरुन्मज्जति। तस्यामु न्मज्जत्यामयुतसिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मज्जति।" प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/६ २. वही ३. “यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भावः स तस्य स्व: स तस्य स्वामीति खरतरतत्त्वदृष्ट्यवष्टम्भाद् आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन विजानाति।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा २०७ ४. “ततः स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसम्बन्धोऽवतिष्ठते।" वही/गाथा १८१-१८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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