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________________ ११२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन का निरूपण आचार्य कुन्दकुन्द ने निम्नलिखित गाथा में किया है - जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो । एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ।।' -जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है, यह स्वरूपभेद ही अतद्भाव है। इनमें से किसी का अभाव अतद्भाव नहीं है। इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - “एकस्मिन् द्रव्ये यद् द्रव्यं गुणो न तद्भवति, यो गुण: स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद् द्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेण तेनाभवनं सोऽतद्भाव: एतावतैवान्यत्वव्यवहारसिद्धः। - एक द्रव्य में जो द्रव्य है वह गुण नहीं होता, जो गुण है वह द्रव्य नहीं होता। इस प्रकार द्रव्य का गुणरूप और गुण का द्रव्यरूप न होना अतद्भाव कहलाता है। मात्र इतने से उनमें परस्पर अन्यत्व का व्यवहार होता है। आचार्य जयसेन ने इसे निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है - “किंचातद्भाव: ? संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इत्यर्थः। तद्यथा मुक्ताफलहारे योऽसौ शुक्लगुणस्तद्वाचकेन शुक्लमित्यक्षरद्वयेन हारो वाच्यो न भवति सूत्रं वा मुक्ताफलं वा। हारसूत्रमुक्ताफलशब्दैश्च शुक्लगुणो वाच्यो न भवति। एवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावोऽतद्भावो भण्यते।"३ - अतद्भाव किसे कहते हैं ? संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद को अतद्भाव कहते हैं। जैसे मोतियों के हार में जो शुक्ल गुण है उसके वाचक ‘शुक्ल' शब्द से न तो हार वाच्य होता है, न सूत्र, न मोती। इसी प्रकार हार, सूत्र और मोती के वाचक शब्दों से शुक्ल गुण वाच्य नहीं होता। इस प्रकार परस्पर प्रदेशाभेद होने पर भी जो संज्ञादिभेद है, वह अतद्भाव कहलाता है। स्व-स्वामित्वादिभेद का हेतु अतद्भाव ही द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक अन्यत्व का हेतु है।' संज्ञादिभेदरूप अतद्भाव के कारण ही वस्तु और उसके गुण-पर्यायों के विषय में 'यह इसमें है' ऐसी प्रतीति होती है। आचार्य कुन्दकुन्द के वचन की व्याख्या करते हुए अमृतचन्द्र सूरि बतलाते हैं - १. प्रवचनसार, २/१६ २. वही/तत्त्वदीपिका २/१६ ३. वही/तात्पर्यवृत्ति २/१५ ४. “स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः।" वही/तत्त्वदीपिका २/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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