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________________ पञ्चम अध्याय सद्भूतव्यवहारनय ( बाह्यभेदावलम्बिनी दृष्टि ) ज्ञाता की बाह्यभेदावलम्बिनी दृष्टि का नाम सद्भूतव्यवहारनय है। वस्तु और उसके धर्मों में संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा जो भिन्नता है उसका अवलम्बन कर जब यह दृष्टि देखती है तब उनमें बाह्य भेद पाती है। सद्भूत का अर्थ है वस्तु में स्वभावतः विद्यमान ( सत् ) धर्म और व्यवहार का अर्थ है संज्ञादिभेद की अपेक्षा उसे वस्तु से भिन्न मानना और धर्म के द्वारा धर्मी ( वस्तु ) का बोध कराने के लिए उनमें ( धर्म-धर्मी में ) भिन्न वस्तुओं के समान स्व-स्वामित्वादिसम्बन्ध का व्यवहार करना।' इसीलिए आलापपद्धतिकार ने कहा है : “व्यवहारो भेदविषयः' अर्थात् एक वस्तु में रहनेवाला भेद सद्भूतव्यवहारनय का विषय है। उन्होंने अन्य सूत्र में भी कहा है - “गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः स्वभावस्वभाविनोः कारककारकिणोर्भेदः सद्भूतव्यवहारस्यार्थः।"३ - गुण और गुणी, पर्याय और पर्यायी ( द्रव्य ), स्वभाव और स्वभावी तथा कारक और कारकी ( कारकवान् ) में जो ( संज्ञादिगत ) भेद होता है वह सद्भूतव्यवहारनय का विषय है ( अर्थात् उस भेद को प्रकाशित करने वाली दृष्टि का नाम सद्भूतव्यवहारनय है )। संज्ञादिभेद के सोदाहरण लक्षण मौलिक-अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि के प्रकरण में दर्शाये गये हैं। संज्ञादिगत भेद : अतद्भाव संज्ञादिगत भेद को अतद्भाव ( अतद्रूपता ) कहते हैं। इसकी यथार्थता १. “यतो ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धभैस्तमनुशासतां सूरीणां धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा ७ २. आलापपद्धति/सूत्र २१६ ३. वही/सूत्र २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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