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________________ ११० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन “उससे कहते हैं कि कुछ व्रत, शील, संयमादि का नाम व्यवहार नहीं है, इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, उसे छोड़ दे और ऐसा श्रद्धान कर कि इनको तो बाह्य सहकारी जानकर उपचार से मोक्षमार्ग कहा है। ये तो परद्रव्याश्रित हैं। सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, वह स्वद्रव्याश्रित है। इस प्रकार व्यवहार को असत्यार्थ हेय जानना। व्रतादिक को छोड़ने से तो व्यवहार का हेयपना होता नहीं है। फिर हम पूछते हैं कि व्रतादिक को छोड़कर क्या करेगा ? यदि हिंसादिरूप प्रवतेंगा तो वहाँ तो मोक्षमार्ग का उपचार भी सम्भव नहीं है, वहाँ प्रवर्तने से क्या भला होगा? नरकादि प्राप्त करेगा। इसलिए ऐसा करना तो निर्विचारीपना है तथा व्रतादिकरूप परिणति को मिटाकर केवल वीतराग उदासीनभावरूप होना बने तो अच्छा ही है, वह निचली दशा मे हो नहीं सकता, इसलिए व्रतादिक साधन छोड़कर स्वच्छन्द होना योग्य नहीं है।' इससे स्पष्ट होता है कि व्रतशीलसंयमादि को परित्याज्य मानना व्यवहारनय के हेय होने का तात्पर्य नहीं है, बल्कि उन्हें उपचार से जो मोक्षमार्ग संज्ञा दी गयी है उसे सत्य और ग्राह्य न मानना हेय होने का तात्पर्य है। किन्तु उस संज्ञा से जो यह अर्थ द्योतित होता है कि व्रतशीलसंयमादि परम्परया मोक्ष के साधक हैं, इसलिए निम्न भूमिका में उपादेय हैं, इसे तो सत्य मानना चाहिए, क्योंकि व्रतशीलसंयमादि वास्तव में परम्परया मोक्ष के साधक हैं और यही द्योतित करने के लिए उन्हें 'मोक्षमार्ग' संज्ञा दी गयी है। इस अपेक्षा से व्यवहारनय अथवा औपचारिक शब्द-प्रयोग उपादेय है। निष्कर्ष यह है कि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय लक्षणा और व्यंजना शक्तियों के द्वारा औपचारिक शब्द से वस्तु के वास्तविक धर्म का बोध कराता है। उस धर्म की स्वीकृति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के लिए आवश्यक १. मोक्षमार्गप्रकाशक/सप्तम अधिकार/पृष्ठ २५३-२५४ २. “व्यवहारमोक्षमागों निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणत्वादुपादेयः।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १६१-१६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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