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________________ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / १०९ वह कभी मुक्त नहीं होता । ' व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग जब निश्चयमोक्षमार्ग का साधक एवं सहचारी होता है तभी मोक्ष का हेतु बनता है। निश्चय के द्वारा व्यवहार के प्रतिषिद्ध होने का एक अभिप्राय यह भी है कि निश्चयमोक्षमार्ग में स्थित होने की क्षमता आ जाने पर व्यवहारमोक्षमार्ग का अवलम्बन त्याज्य होता है। हेय होने का अभिप्राय यह नहीं है कि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय के कथन को शशशृंग के कथन के समान सर्वथा असत्य मान लिया जाय । सर्वथा असत्य मान लेने से इसके द्वारा जो संसार की सत्यता का प्रतिपादन होता है, वह भी असत्य हो जायेगा । संसार की सत्यता सिद्ध न होने पर मोक्ष प्राप्ति का औचित्य भी सिद्ध न होगा जिससे सर्वज्ञ के सम्पूर्ण उपदेश के अयुक्तिसंगत होने का प्रसंग आयेगा । निष्कर्ष यह कि औपचारिक शब्द से जो अर्थ प्रथमतः उपस्थित होता है उसे परमार्थ न माना जाय, अपितु उससे जो अन्य प्रासंगिक अर्थ व्यंजित होता है उसे परमार्थ माना जाय । औपचारिक शब्द से प्रथमतः उपस्थित अर्थ को परमार्थ मानने पर जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो पाता, केवल अनौपचारिक ( जिसका वाचक है उसी के लिए प्रयुक्त होने वाले ) शब्द से प्रथमतः उपस्थित अर्थ को परमार्थ मानने वाला जीव सम्यग्दृष्टि हो पाता है। हाँ, औपचारिक शब्द से प्रथमत: उपस्थित अर्थ को गौणकर उस अर्थ से जो अन्य युक्तिसंगत अर्थ व्यंजित होता है उसे परमार्थ मानना सम्यग्दृष्टि बनने के लिए अनिवार्य है। कुछ अज्ञानी इस व्यवहारनय को हेय कहे जाने का तात्पर्य यह लेते हैं कि इस नय से जिन व्रत - शील-संयमादि को मोक्षमार्ग कहा गया है, वे हेय हैं। पंडित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में इस मान्यता के भ्रमपूर्ण होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है। ➖➖ “यहाँ कोई निर्विचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुम व्यवहार को असत्यार्थ, हेय कहते हो, तो हम व्रत, शील, संयमादिक व्यवहार कार्य किसलिए करें ? सबको छोड़ देंगे।" १. " आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात्। प्रतिषेध्य एव चायम्, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च ।” समयसार/आत्मख्याति /गाथा २७२ २ . वही / तात्पर्यवृत्ति/गाथा २७६ - २७७ ३. 'किं च निर्विकल्पसमाधिरूपे निश्चये स्थित्वा व्यवहारस्त्याज्यः किं तु त्रिगुप्तावस्थायां व्यवहारः स्वयमेव नास्तीति तात्पर्यार्थः । एवं निश्चयनयेन व्यवहारः प्रतिषिद्ध इति । " वही / तात्पर्यवृत्ति/गाथा २७६-२७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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