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________________ १०८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन हेय होने का अभिप्राय आगम में व्यवहारनय को हेय, प्रतिषिद्ध अथवा अननुसरणीय कहा गया है। यहाँ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय की हेयता का अभिप्राय विचारणीय है। उपचार में एक वस्तु के लिए दूसरी वस्तु के नाम का प्रयोग किया जाता है, जिससे उसका मुख्यार्थ ( प्रचलित अर्थ ) असत्य हो जाता है, जैसे किसी बालक को सिंह कहने से 'सिंह' शब्द का सिंहरूप मुख्यार्थ बालक पर चरितार्थ न होने से असत्य होता है। इसी प्रकार शरीर को जीव कहने से जीव शब्द का चेतनतत्त्वरूप मुख्यार्थ शरीर पर चरितार्थ न होने से असत्य होता है। इसलिए जहाँ शरीर को जीव कहा गया है वहाँ जीव शब्द से जीव अर्थ ग्रहण करने योग्य नहीं है, अपितु शरीर के लिए जीव शब्द का प्रयोग करने से दोनों में जो एक विलक्षण अभेद की प्रतीति होती है, वहीं अर्थ ग्राह्य है। तथा जहाँ जीव को पुद्गलकर्मों का कर्ता कहा गया है, वहाँ कर्ता शब्द से उपादानरूप अर्थ ग्राह्य नहीं है, बल्कि 'उपादान का प्रेरक' अर्थ ग्रहण करने योग्य है। इसी प्रकार जहाँ सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग को मोक्षमार्ग शब्द से अभिहित किया गया है, वहाँ उक्त शब्द से मोक्षमार्ग अर्थ ग्राह्य नहीं है, अपितु मोक्षमार्गसाधक होने से “मोक्षसाधन में उपादेयरूप' अर्थ ग्राह्य है। ये अर्थ प्रस्तुत सन्दर्भो में जीव-शब्द, कर्ता-शब्द और मोक्षमार्ग-शब्द के औपचारिक ( लाक्षणिक ) बन जाने से शब्द की व्यंजना शक्ति द्वारा व्यंजित होते हैं, क्योंकि उनका मुख्यार्थ अनुपपन्न होने से बाधित हो जाता है। इस प्रकार उपचारतः प्रयुक्त शब्द के मुख्यार्थ का अग्राह्य होना उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय के हेय होने का तात्पर्य है। अननुसरणीय एवं प्रतिषिद्ध होने का भी यही अभिप्राय है। प्रतिषिद्ध होने का एक दूसरा अभिप्राय भी है जिसकी ओर आचार्य कुन्दकुन्द ने संकेत किया है और अमृतचन्द्र सूरि ने जिसे स्पष्ट किया है। वह यह कि परद्रव्यों में आत्मबुद्धि, ममत्वबुद्धि एवं कर्तृत्वबुद्धि का नाम अध्यवसान है। यह बन्ध का हेतु है। परद्रव्यविषयक होने से पराश्रित है। निश्चयनय द्वारा प्राप्त ज्ञान से यह गलत सिद्ध हो जाता है। इसी को निश्चयनय द्वारा इसका निषिद्ध होना कहा गया है। उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय भी परद्रव्यविषयक होने से पराश्रित है। चूँकि अध्यवसान पराश्रित होने से निश्चयनय द्वारा निषिद्ध है, इससे निष्कर्ष निकलता है कि पराश्रित होने की समानता के कारण ( पराश्रितत्वाविशेषात् ) व्यवहारनय का भी निश्चयनय द्वारा निषेध हो जाता है। इसका पराश्रित होना निषेध का कारण इसलिए है कि यह जिसे मोक्षमार्ग कहता है वह पराश्रित होने से एकान्ततः मोक्ष का हेतु नहीं है, क्योंकि अभव्य जीव एकमात्र उसे ही अपनाता है, किन्तु १. समयसार/आत्मख्याति/गाथा २७२ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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