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________________ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / १०५ असद्भूतव्यवहारनय श्रुतज्ञान का। आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में ‘जीव कर्मों से बद्ध है', ऐसा निर्णय करनेवाले उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय को श्रुतज्ञान का अवयव बतलाया है। अज्ञानियों का व्यवहार अज्ञान पर आश्रित होता है, उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय ज्ञान पर। जीव को उपादानरूप से पुद्गलकर्मों का कर्ता मानना अज्ञानाश्रित होने से अज्ञानमय व्यवहार है, किन्तु निमित्तरूप से कर्ता कहना ज्ञानाश्रित होने से उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय है। आचार्य कुन्दकुन्द एवं अमृतचन्द्र सूरि ने प्रथम को ही ( जीव को उपादानरूप से पुद्गल कर्मों का कर्ता-भोक्ता मानने को ही ) अज्ञानमय व्यवहार या व्यवहारियों के व्यामोह की संज्ञा दी है। द्वितीय को तो वे श्रुतज्ञान का विकल्प मानते हैं, अत: उन्होंने स्वयं जीव को निमित्तरूप से परद्रव्यों का कर्ता कहा है। तथा नियमसार में श्रुतकेवली के कथन को अपने शब्दों में उतारते हुए कुन्दकुन्द ने स्पष्टत: जीव को व्यवहारनय ( उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय ) से पुद्गलकर्मों का कर्ता-भोक्ता बतलाया है - “कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्महस होदि ववहारो।" ये सब जिनेन्द्रदेव के उपदेश के अंग हैं। उन्होंने संसार की सत्यता और मोक्ष के औचित्य का प्रतिपादन करने के लिए उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय से बहश: उपदेश दिया है। जीव और शरीर के कथंचिद् अभेद की प्रतीति कराने के लिए शरीर में 'जीव' संज्ञा का उपचार किया है। रागद्वेषमोहरूप अशुद्धपर्याय से अभिन्नता दर्शाने के लिए रागद्वेषमोह को जीव शब्द से उपचरित किया है। शरीरादि प्राणों के घात को हिंसा शब्द से संकेतित किया है। अदत्तादानादि के लिए उपचार से स्तेयादि संज्ञाएँ दी हैं। जीव को उपचार से चेतन-अचेतन द्रव्यों का भोक्ता कहा है। सम्यक्त्वसाधक एवं शुद्धोपयोगसाधक शुभोपयोग को मोक्षमार्ग शब्द से अभिहित किया है। जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान में सम्यग्दर्शन शब्द का उपचार किया है। क्या यह कहा जा सकता है कि सर्वज्ञ का यह असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश १. "श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः।' समयसार/आत्मख्याति/गाथा १४३ २. “जीवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञाननिनामासंसारप्रसिद्धोऽस्ति तावद् व्यवहारः।' वही/आत्मख्याति/गाथा ८४ ३. (क) “अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ।" वही/गाथा १०० (ख) “इति परम्परया निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्तृत्वं स्यात्।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १०० ४. नियमसार/गाथा १८ ५. "उभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति।'' पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १५९ ६. "देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता।" समयसार/गाथा ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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