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________________ १०६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार है ? यदि नहीं, तो सिद्ध है कि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय अज्ञानियों के व्यवहार का पर्यायवाची नहीं है। दोनों में अन्धकार और प्रकाश के समान अन्तर है । (२) उपचार का लक्षण ऐसा है कि उसका प्रयोग ज्ञानी ही कर सकते हैं, क्योंकि जब व्यक्ति को संश्लेषादि सम्बन्धों से जुड़े पदार्थों की स्वभावगत भिन्नता का ज्ञान हो और वह प्रयोजनविशेष से एक के नाम का दूसरे के लिए प्रयोग करे तब वह उपचार कहलाता है। ' उदाहरणार्थ, जब मनुष्य को यह ज्ञान होता है कि जीव और शरीर स्वभाव से भिन्न हैं, किन्तु संसारावस्था में उनमें संश्लेष सम्बन्ध है तब उनके कथंचित् अभेद की प्रतीति कराने के लिए शरीर को 'जीव' शब्द से अभिहित करता है, तभी इसकी उपचार संज्ञा होती है । किन्तु, अज्ञानमय व्यवहार तो इसके विपरीत है। वह संश्लेषादि सम्बन्धों से जुड़े पदार्थों की भिन्नता के अज्ञान से उत्पन्न होता है । इसलिए वह ज्ञानियों का उपचारात्मक प्रयोग न होकर अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार होता है। (३) उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय निश्चय - सापेक्ष होता है, अज्ञानियों का व्यवहार निश्चय-निरपेक्ष । जब उपचार को उपचाररूप से ग्रहण किया जाता है। तब वह असद्भूतव्यवहारनय होता है, जब उसे परमार्थ मान लिया जाता है तब अज्ञानमय व्यवहार होता है । ' अज्ञानमय व्यवहार अज्ञानियों की दृष्टि से परमार्थ होता है, ज्ञानियों की दृष्टि से उपचार। २ ३ (४) आचार्य कुन्दकुन्द ने उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय को परमार्थ का प्रतिपादक बतलाया है और आचार्य अमृतचन्द्र ने शिष्यों के दुस्तर अज्ञान का १. (क) “तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात् तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि समयसार/आत्मख्याति / गाथा ५८-६० 1 (ख) " सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।" वही / गाथा ६० " ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते ते समयसारमेव न चेतयन्ते ।” वही / आत्मख्याति / गाथा ४१४ ३. तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य । सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसति ।। वही / गाथा ५९-६० ४. “ व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छाभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद् अपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव ।” वही / आत्मख्याति / गाथा ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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