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________________ १०४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन के लिए बैल नहीं कहता, अपितु बैलसदृश जाड्यमान्द्यादि धर्मों के अतिशय की प्रतीति कराने के प्रयोजन से 'बैल' शब्द का उपचार करता है।' इस प्रकार वस्तुधर्म का प्रतिपादक होने से ही जिनेन्द्रदेव ने उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय को अपरमार्थ होते हुए भी परमार्थ का प्रतिपादक बतलाया है। स्याद्वादमञ्जरीकार ने भी कहा है - “लौकिकानामपि घटाकाशं पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धेराकाशस्य नित्यानित्यत्वम्। न चायमौपचारिकत्वाद् अप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात्।' लोक में भी घटाकाश, पटाकाश ऐसा व्यवहार प्रसिद्ध है, इसलिए आकाश नित्यानित्य है । औपचारिक होने के कारण यह अप्रमाण है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उपचार भी किंचित् साधर्म्य के द्वारा मुख्यार्थ ( मुख्यार्थ के सहचारी अर्थ ) का ही स्पर्श करता है ( व्यंजित करता है )। ,,२ ये आर्षवचन सिद्ध करते हैं कि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय का विषय भी वस्तुधर्म ही है। उपचार और अज्ञानियों के व्यवहार में अन्तर पूर्वोक्त पण्डितवर्ग उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय को अज्ञानियों के अनादिरूढ़ व्यवहार का पर्यायवाची मानता है। इसलिए उसने असद्भूतव्यवहारनय को सर्वथा अभूतार्थ घोषित किया है। अपनी मान्यता पण्डितवर्ग ने निम्नलिखित कथन में व्यक्त की है “अब रहा असद्भूत व्यवहारनय, सो उसका विषय मात्र उपचार है। समयसार, गाथा ८४ में पहले आत्मा को व्यवहारनय से पुद्गलकर्मों का कर्त्ता और भोक्ता बतलाया गया है, किन्तु यह व्यवहार असद्भूत है, क्योंकि अज्ञानियों का अनादि संसार से ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है, इसलिए गाथा ८५ में दूषण देते हुए निश्चयनय का अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है । " कथित विद्वद्वर्ग की यह मान्यता अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है। इसके निम्नलिखित कारण हैं (१) अज्ञानियों का व्यवहार अज्ञान का विकल्प है, उपचारमूलक १. 'गौर्वाहीक : ' अत्र हि स्वार्थसहचारिणो गुणा जाड्यमान्द्यादयो लक्ष्यमाणा अपि गोशब्दस्य परार्थाभिधाने प्रवृत्तिनिमित्तत्वमुपयान्ति इति केचित् । " काव्यप्रकाश, २ / १२ २. स्याद्वादमञ्जरी, ५ / २६ ३. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा / भाग २, पृष्ठ ४३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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