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________________ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / १०३ "अपर पक्ष समझता है कि व्यवहारनय का विषय भी वस्तु का धर्मविशेष है, किन्तु ऐसी बात नहीं है। .... 'निश्चय' शुद्ध अखण्ड वस्तु है और 'व्यवहार' अखण्ड वस्तु में भेद उपजाकर उसका कथन करना मात्र है।' अब रहा असद्भूतव्यवहारनय सो उसका विषय मात्र उपचार है।"२ यही बात यह पण्डितवर्ग निम्नलिखित शब्दों में दुहराता है – “सद्भूतव्यवहारनय का विषय संज्ञा, प्रयोजन और लक्षण आदि को ध्यान में रखकर अखण्ड त्रिकालाबाधित वस्तु में भेद उपजाकर कथन करना मात्र है और असद्भूत-व्यवहारनय का विषय एक वस्तु में अन्य वस्तु के गुणधर्म का प्रयोजनादिवश आरोपकर कथन करना मात्र है।"३ विद्वद्वर्ग का यह कथन स्वविरोधी है, क्योंकि यह स्वयं सिद्ध करता है कि असद्भूतव्यवहारनय का विषय वस्तुधर्म है। वे स्वीकार करते हैं कि एक वस्तु में अन्य वस्तु के गुणधर्म का आरोप ( उपचार ) प्रयोजनवश किया जाता है। यह प्रयोजन क्या है ? वस्तुधर्म का प्रकाशन ही वह प्रयोजन है। पूर्व में स्पष्ट किया गया है कि उपचार के द्वारा अनेक वस्तुधर्म प्रकाशित किये जाते हैं, जैसे जीव और शरीर का विलक्षण अभेद, स्वशरीर-परशरीर, स्वधन-परधन, स्वदार-परदार आदि के रूप में रहनेवाले लौकिक सम्बन्ध, बन्ध और मोक्ष में जीव का स्वातन्त्र्य आदि। इन्हीं वस्तुधर्मों पर परद्रव्याश्रित, बाह्य हिंसा-अहिंसा, व्रत-अव्रत, संयमअसंयम, तप-अतप, परिग्रह-अपरिग्रह आदि की वास्तविकता अवलम्बित है। उपचार के द्वारा परद्रव्याश्रित व्रत, संयम, तप आदि के मोक्षहेतुत्व एवं उपादेयत्व का भी प्रतिपादन किया जाता है, ये भी वस्तुधर्म हैं। इन वस्तुधर्मों की प्रतीति कराना ही वह प्रयोजन है, जिसके लिये एक वस्तु में अन्य वस्तु के धर्म का आरोप करके कथन किया जाता है। इसलिये उपचार की प्रयोजनाधीनता स्वीकार कर उक्त विद्वान् स्वयं स्वीकार करते हैं कि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय का विषय वस्तुधर्म है। व्याकरणशास्त्र और काव्यशास्त्र में भी साधर्म्यादि सम्बन्ध के द्वारा वस्तुधर्म की प्रतीति कराना ही उपचार का प्रयोजन है। लोक में भी 'यह बालक सिंह है' इत्यादि औपचारिक प्रयोगों के द्वारा साधर्म्यादि सम्बन्ध के आधार पर बालक के सिंहसदृश क्रौर्यशौर्यादि धर्मों के अतिशय को ही व्यंजित किया जाता है। उपचार केवल उपचार के लिए नहीं होता। वस्तुधर्म को द्योतित करने के लिए ही उपचार का प्रयोग किया जाता है। कोई भी आदमी किसी मनुष्य को केवल 'बैल' कहने १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृष्ठ ८३२ २. वही, २/४३६ ३. वही २/८३२-८३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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