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१०२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
के द्वारा परद्रव्य के ग्रहण-त्याग की युक्तिमत्ता प्रदर्शित कर अपरिग्रह, दत्तादान, स्वदार-परदारनिवृत्ति आदि व्रतों, आदान-निक्षेपण आदि समितियों, आहारादि चतुर्विध दानों तथा अनशन, रस-परित्याग आदि तपों के उपदेश की युक्ति-संगतता का अनुभव कराया जाता है। इसके अतिरिक्त औपचारिक शब्द से जो साधर्म्यसम्बन्ध अभिव्यक्त होता है, उसके द्वारा शुभोपयोग आदि के परम्परया मोक्षहेतुत्व एवं उपादेयत्व आदि धर्मों का तथा आस्रवादि के संसारहेतुत्व एवं हेयत्वादि धर्मों का द्योतन किया जाता है। इस प्रकार वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन में उपचारमूलक असद्भूत व्यवहारनय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
अपरमार्थ होते हुए भी परमार्थप्रतिपादक यहाँ इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि जिस शब्द का प्रयोग उपचार से किया जाता है, उसका अर्थ बदल जाता है। वह मुख्य ( प्रसिद्ध ) अर्थ का वाचक न होकर मुख्यार्थ के सहचारी उन अर्थों का व्यंजक हो जाता है, जिनकी सत्ता उपचरित वस्तु में होती है अर्थात् उस वस्तु में जिसके लिए उस शब्द का उपचारतः प्रयोग होता है। इसलिए उपचार परमार्थ ( वस्तुधर्म ) का ही प्रतिपादन करता है। वह केवल मुख्यार्थ की अपेक्षा अभूतार्थ होता है, मुख्यार्थ से द्योतित होनेवाले सहचारी अर्थ की अपेक्षा नहीं। यह नियम भी है कि उपचार से प्रयुक्त किये शब्द का मुख्यार्थ सदा गौण हो जाता है और उससे द्योतित होनेवाला अर्थ ही प्रधानता ग्रहण कर लेता है। किन्तु, चूँकि अज्ञानीजन इसके मुख्यार्थ को ग्रहणकर भ्रमित हो सकते हैं, इसलिए उनको भ्रम से बचाने के लिए उपदेश दिया गया है कि उपचार अभूतार्थ है, किन्तु अभूतार्थ का प्रतिपादक है, ऐसा नहीं कहा गया है, अपितु अपरमार्थ होते हुए भी परमार्थ का प्रतिपादक है, ऐसा ही प्रज्ञापित किया गया है।'
वस्तुधर्म का प्रतिपादक उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है, इस आर्षवचन से सिद्ध है कि वह वस्तुधर्म का प्रतिपादक है। कुछ आधुनिक पण्डितों का मत है कि इस असद्भूतव्यवहारनय का विषय वस्तुधर्म नहीं है, अपितु उपचारमात्र है। वस्तुधर्म को व्यवहारनय का विषय माननेवाले विद्वज्जनों पर आपेक्ष करते हुए यह वर्ग लिखता है -
१. “सर्व एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद् भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं
तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम्। व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद् अपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४६
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