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उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय । ८९
देते हैं, उन सबके लिए सूत्र ( आगम ) में उपचार से 'जीव' शब्द का प्रयोग किया गया है, यद्यपि उनमें जीव शुद्धचैतन्यभाव मात्र होता है।'' तथा “जैसे किसी मार्ग में लोगों को लुटता हुआ देखकर 'यह मार्ग लुटता है' ऐसा लोग उपचार से कहते हैं, वैसे ही जिनेन्द्रदेव ने जीव में स्थित कर्म और नोकर्म का वर्ण देखकर ‘यह जीव का वर्ण है' ऐसा उपचार से कहा है।"
- निमित्त और प्रयोजन पर आश्रित ___अन्य वस्तु में अन्य वस्तु के नाम का उपचार किसी निमित्त और प्रयोजन के होने पर ही होता है, जैसा कि कहा गया है – “मुख्याभावे सति निमित्ते प्रयोजने चोपचार: प्रवर्तते।"
उदाहरणार्थ, राजा और सेना का साहचर्यसम्बन्ध सेना में राजा शब्द के उपचार का निमित्त है और प्रयोजन है राजा के प्रभुत्व और बल की प्रतीति कराना तथा शरीर और जीव का संश्लेष-सम्बन्ध शरीर के लिए जीव शब्द के औपचारिक प्रयोग का निमित्त है और यह इस प्रयोजन से किया जाता है कि जीव और शरीर के उस विलक्षण अभेद की प्रतीति हो जाय जिसके कारण शरीर के छेदन-भेदन से जीव को पीड़ा होती है और हिंसा का पाप घटित होता है। इसी प्रकार 'यह मार्ग लुटता है' यहाँ मार्गस्थ लोगों में मार्ग शब्द का उपचार आधार-आधेय सम्बन्ध के कारण सम्भव होता है और इससे यह ध्वनित किया जाता है कि मार्ग लुटेरों के लिए सुवधिाजनक है और इसमें पथिक नित्य और निश्चित रूप से लूटे जाते हैं तथा 'यह जीव का वर्ण है' यहाँ शरीर में जीवत्व का उपचार भी आधार- आधेय सम्बन्ध के निमित्त से सम्भव हुआ है और ऐसा प्रयोग जीव और शरीर के उपर्युक्त १. राया ह णिग्गदो त्तिय एसो बलसमुदयस्स आदेसो ।
ववहारेण दु उच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया ।। एवमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं ।
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेको णिच्छिदो जीवो ।। समयसार/गाथा ४७-४८ २. पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी ।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ।। तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं ।।
जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।। वही/गाथा ५८-५९ ३. आलापपद्धति/सूत्र २१२ ४. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४६ ५. “तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात् तदु
पचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि।" वही/गाथा ५८-६०
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