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________________ चतुर्थ अध्याय उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय ( उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ) उपचार का अर्थ है अन्य वस्तु के धर्म को अन्य पर आरोपित करना । ' अन्य वस्तु का धर्म उसके वाचक शब्द के द्वारा आरोपित किया जाता है । अतः अन्य के लिए अन्य के वाचक शब्द का प्रयोग करना अर्थात् एक वस्तु को दूसरी वस्तु के नाम से संकेतित करना उपचार कहलाता है।' यह असद्भूतव्यवहारनय का एक भेद है। उपचार एक लोकव्यवहार - उपचार एक लोकव्यवहार है। लोक में किसी बालक के क्रूरता, पराक्रम आदि गुणों के अतिरेक को द्योतित करने के लिए उसे उपचार से सिंह कहा जाता है. 'सिंहो माणवकः'। किसी मनुष्य के जड़ता - मन्दता आदि धर्मों की अधिकता दर्शाने के लिए उसे 'बैल' शब्द से पुकारा जाता है 'गौर्वाहीक:' ( हलवाहा बैल है ) । आयुवर्धन ( स्वास्थ्यवर्धन ) में घी की अमोघशक्ति का अनुभव कराने के प्रयोजन से घी के लिए 'आयु' संज्ञा का प्रयोग किया जाता है ‘आयुर्घृतम्’। इसी युक्तिमत् लोकव्यवहार का अनुसरण करते हुए जिनेन्द्रदेव ने प्रयोजन - विशेष से शरीर तथा रागादि को 'जीव' शब्द से वर्णित किया है, शरीर के वर्णादि को जीव के वर्णादि की संज्ञा दी है, जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता नाम दिया है, सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग में मोक्षमार्ग शब्द का उपचार किया है। इसी प्रकार के अन्य अनेक औपचारिक प्रयोग किये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द इस पर प्रकाश डालते. हुए कहते हैं - " जैसे लोक में सेना के साथ जाते हुए राजा को देखकर उस सम्पूर्ण सेना को 'राजा जा रहा है' ऐसा उपचार से कहा जाता है, यद्यपि उसमें राजा एक ही होता है, वैसे ही जीव के साथ जितने भी शरीर, राग, द्वेष, मोह आदि भाव दिखाई १. " अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एवोपचारः । " आलापपद्धति / सूत्र २०७ - २०८ २. (क) “मञ्चाः क्रोशन्ति इति तात्स्थ्यात् तच्छब्दोपचारः । " श्लोकवार्तिक २/१/६/५६ (ख) “गुणसहचारित्वादात्मापि गुणसंज्ञां प्रतिलभते ।" धवला १/९/१६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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