SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन अभेद का अनुभव कराने के लिए किया गया है। व्याकरण और काव्यशास्त्र में उपचार २ उपचार की मीमांसा व्याकरणशास्त्र और काव्यशास्त्र में भी की गयी है। काव्यशास्त्र में इसे शब्द का लाक्षणिक प्रयोग कहा जाता है "लक्षणया शब्दप्रयोगः । " " यह दो प्रकार का होता है - रूढ़ एवं सप्रयोजन। जैसे "कर्मणि कुशल: ' ( कार्य में दक्ष ) यहाँ 'कुशल' शब्द का मुख्य अर्थ है 'हाथों को क्षति पहुँचाये बिना कुशों को तोड़ने वाला ।' किन्तु कुशों को इस प्रकार तोड़ने में जो दक्षता आवश्यक है उससे साधर्म्य होने के कारण किसी भी कार्य को दक्षतापूर्वक सम्पन्न करनेवाले के अर्थ में रूढ़ (प्रसिद्ध ) हो गया है। इस रूढ़ि के कारण 'कुशल' शब्द 'दक्ष' अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'दक्ष' अर्थ में 'कुशल' शब्द के प्रयोग का कोई प्रयोजन नहीं है। किन्तु 'सिंहो माणवकः' यहाँ 'बालक' के अर्थ में 'सिंह' शब्द का प्रयोग रूढ़ि के कारण नहीं किया गया है ( क्योंकि वह 'बालक' के अर्थ में रूढ़ है ही नहीं ), अपितु बालक के सिंहसदृश क्रौर्य - शौर्यादि गुणों के अतिशय की प्रतीति कराने के प्रयोजन से किया गया है। जैनसिद्धान्त में लक्षणा द्वारा शब्दप्रयोग ( उपचार ) सप्रयोजन होता है, जैसा कि पूर्व में कहा गया है। यद्यपि आगम में जो औपचारिक प्रयोग सप्रयोजन होते हैं, वे लोक में अनादि से रूढ़ भी हैं, तथापि आगम में रूढ़ि के कारण नहीं, अपितु प्रयोजनवश ही उनका प्रयोग हुआ है, क्योंकि आगम में प्रयोजन के बिना अन्य के लिए अन्य के शब्द का प्रयोग करने की कोई उपयोगिता नहीं है, उलटे अन्यथाबुद्धि उत्पन्न होने का ही खतरा है। लोक में अज्ञानतावश शरीरादि को जीव कहने की अनादिपरम्परा है, किन्तु जिनेन्द्रदेव ने इस परम्परावश शरीरादि के लिए जीव शब्द प्रयुक्त नहीं किया है, अपितु प्रयोजनवश किया है। इसे आचार्य कुन्दकुन्द एवं अमृतचन्द्र सूरि ने समयसार में स्पष्ट किया है। प्रश्न किया गया है कि जब शरीरादि अध्यवसानभाव जीव नहीं हैं तब उन्हें सर्वज्ञ भगवान् ने जीव क्यों कहा है ?* इसके समाधान में आचार्य कुन्दकुन्द के भाव को स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने बतलाया है कि जीव और शरीर में एक ऐसा विलक्षण अभेद है, जिसके काव्यप्रकाश, २/१४ १. २. वही, २ / ९ ३. "प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया यत्र लक्षणया शब्दप्रयोगस्तत्र नान्यतस्तत्प्रतीतिरपि तु तस्मादेव शब्दात् । ” काव्यप्रकाश, २/१४ ४. “ यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेत् ***1 समयसार / आत्मख्याति / गाथा ४६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy