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असद्भूतव्यवहारनय / ७९
का रागात्मक परिणाम है, अत: कदाचित् अज्ञानावस्था में वह इनका कर्ता होता है, किन्तु परद्रव्यात्मक कर्म का कर्ता कभी नहीं होता।"
तात्पर्य यह कि जीव के योग और उपयोग घटादि कार्यों की उत्पत्ति के निमित्त कारण होते हैं।
___ आत्मा ज्ञानस्वभाव है तथा लोक के पदार्थ ज्ञेयस्वभाव! ज्ञानस्वभाव आत्मा के निमित्त से पदार्थों का ज्ञेयस्वभाव परिणमित होता है, अर्थात् वे ज्ञानस्वभावात्मक आत्मा में प्रतिबिम्बित होते हैं। दूसरे शब्दों में, ज्ञेयों के आकार ज्ञान में झलकते हैं। तथा पदार्थों के निमित्त से आत्मा का ज्ञानस्वभाव परिणमित होता है, अर्थात् पदार्थों के आकारों को ग्रहण करता है, अपने में झलकाता है। इसे ज्ञान का ज्ञेयाकारमय परिणमन कहते हैं।
धर्म, अधर्म आकाश और काल, ये द्रव्य क्रमश: जीव की गति, स्थिति, अवगाह तथा वर्तना के निमित्त हैं।
चूँकि कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव के निमित्त से होता है, इसलिए कदाचित् एक जीव दूसरे जीव के क्रोधादि के उदय का निमित्त बन जाता है। बाह्य परिग्रह के निमित्त से जीव में मूर्छा की उत्पत्ति हो जाती है। क्षेत्रविशेष या कालविशेष भयादि कषाय की उत्पत्ति का निमित्त हो जाता है।
तथैव देव, शास्त्र और गुरु के निमित्त से जीव के मोहरागद्वेष का विलय होता है। कहा भी गया है -
जिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा ।
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।
-जो जिनशास्त्र से प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा शुद्धात्मादि पदार्थों को जानता है, उसका मोह नियम से क्षीण होता है। अत: शास्त्रों का अच्छी तरह अध्ययन करना चाहिए। तथा -
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।। - जो अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे थे उनके नेत्रों को जिन्होंने ज्ञानरूपी १. समयसार/आत्मख्याति, गाथा १०० २. “णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स।" प्रवचनसार १/२८ ३. "ज्ञानी चार्थाश्च स्वलक्षणभूतपृथक्त्वतो न मिथो वृत्तिमासादयन्ति, किन्तु तेषां ज्ञानज्ञेय
स्वभावसम्बन्धसाधितमन्योन्यवृत्तिमात्रमस्ति।" वही/तत्त्वदीपिका १/२८ एवं ३६ ४. प्रवचनसार, १/८६
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