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७८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
___ - जीव के शुभाशुभ परिणामों के निमित्त से पुद्गलपरमाणु कर्मरूप से परिणमित हो जाते हैं। इसी प्रकार पुद्गलकर्मों के निमित्त से जीव भी शुभाशुभभावरूप परिणमन करता है।
साता-असातावेदनीय कर्म के उदय से जीव सुख-दुःखरूप से परिणमित होता है। आत्मा के शुद्धोपयोगरूप स्वभाव के निमित्त से कर्मपुद्गल संवर, निर्जरा और मोक्षरूप से परिणमन करते हैं।'
साता-असातावेदनीय कर्म के उदय से इष्टानिष्ट इन्द्रियविषयों का सान्निध्य प्राप्त होता है। इन्द्रियविषयों का सान्निध्य आत्मा की सुखदुःखात्मक परिणति में निमित्त बनता है।
जीव के योग ( आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दरूप प्रयत्न ) और उपयोग ( इच्छादिरूप परिणाम ) के निमित्त से मिट्टी आदि पदार्थ घट-पटादि रूप से परिणमित होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं सेसगे दव्वे ।
जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कता ।।'
- जीव न तो घट उत्पन्न करता है, न पट, न अन्य द्रव्य। उसके योगोपयोग इन द्रव्यों के ( निमित्तरूप से ) कर्ता हैं। जीव इन योग और उपयोग का कर्ता होता है।
इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
"जो घटादि अथवा क्रोधादि परद्रव्यात्मक कार्य हैं उन्हें आत्मा व्याप्यव्यापकभाव से उत्पन्न नहीं करता, क्योकि इससे आत्मा के घटादिमय अथवा क्रोधादिमय होने का प्रसंग आता है। निमित्तनैमित्तिकभाव से भी उत्पन्न नहीं करता, क्योंकि इस तरह आत्मा के नित्य होने से इनकी नित्य उत्पत्ति का प्रसंग आता है। इसलिए आत्मा के अनित्य योग और उपयोग ही इनके निमित्तरूप से कर्ता हैं। चूंकि योग आत्मा के प्रदेशों का चलनरूप व्यापार है तथा उपयोग आत्मा के चैतन्यस्वभाव १. "शुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदुःखपरिणामानाम् ।” पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा २७ २. वही/गाथा १०८ ३. “पुद्गलकर्मविपाकसम्पादितविषयसन्निधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणतिं. "।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा ८४ ४. वही/गाथा १०० ५. “इति परम्परया निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्तृत्वं स्यात्।”
वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १००
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